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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 34
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नमो॒ वन्या॑य च॒ कक्ष्या॑य च॒ नमः॑ श्र॒वाय॑ च प्रतिश्र॒वाय॑ च॒ नम॑ऽआ॒शुषे॑णाय चा॒शुर॑थाय च॒ नमः॒ शूरा॑य चावभे॒दिने॑ च॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। वन्या॑य। च॒। कक्ष्या॑य। च॒। नमः॑। श्र॒वाय॑। च॒। प्र॒ति॒श्र॒वायेति॑ प्रतिऽश्र॒वाय॑। च॒। नमः॑। आ॒शुषे॑णाय। आ॒शुसे॑ना॒येत्या॒शुऽसेना॑य। च॒। आ॒शुर॑था॒येत्या॒शुऽर॑थाय। च॒। नमः॑। शूरा॑य। च॒। अ॒व॒भे॒दिन॒ इत्य॑वऽभे॒दिने॑। च॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो वन्याय च कक्ष्ण्याय च नमः श्रवाय च प्रतिश्रवाय च नमऽआशुषेणाय चाशुरथाय च नमः शूराय चावभेदिने च नमो बिल्मिने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। वन्याय। च। कक्ष्याय। च। नमः। श्रवाय। च। प्रतिश्रवायेति प्रतिऽश्रवाय। च। नमः। आशुषेणाय। आशुसेनायेत्याशुऽसेनाय। च। आशुरथायेत्याशुऽरथाय। च। नमः। शूराय। च। अवभेदिन इत्यवऽभेदिने। च॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 34
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    भावार्थ -
    ( वन्याय च ) वनों के रक्षण में कुशल वनाध्यक्ष, 'वन्य'(कक्ष्याय च ) पर्वतों और नदियों के वहीं के अध्यक्ष 'कक्ष्य' (श्रवाय च )शब्द करने वाले, बाजा आदि बजाने वाले और (प्रतिश्रवाय च ) प्रति शब्द करने वाले, ( शुणाय च ) शीघ्रगामिनी सेना के स्वामी, (आशुर थाय ) शीघ्रगामी रथसेना वाले (शूराय च ) शूरवीर, (अवभेदिने च ) शत्रु के व्यूह और गढ़ों को तोड़ने वाले इन समर्थ राष्ट्र और युद्धोंपयोगी पुरुषों को ( नमः ) उचित अन्न, मान, पद, अधिकार आदि दिया जाय ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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