यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - रुद्रो देवता
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
नमो॑ऽस्तु॒ नील॑ग्रीवाय सहस्रा॒क्षाय॑ मी॒ढुषे॑। अथो॒ येऽअ॑स्य॒ सत्वा॑नो॒ऽहं तेभ्यो॑ऽकरं॒ नमः॑॥८॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। अ॒स्तु॒। नील॑ग्रीवा॒येति॒ नील॑ऽग्रीवाय। स॒ह॒स्रा॒क्षायेति॑ सहस्रऽअ॒क्षाय॑। मी॒ढुषे॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। ये। अ॒स्य॒। सत्वा॑नः। अ॒हम्। तेभ्यः॑। अ॒क॒र॒म्। नमः॑ ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे । अथो येऽअस्य सत्वानोहन्तेभ्यो करन्नमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। अस्तु। नीलग्रीवायेति नीलऽग्रीवाय। सहस्राक्षायेति सहस्रऽअक्षाय। मीढुषे। अथोऽइत्यथो। ये। अस्य। सत्वानः। अहम्। तेभ्यः। अकरम्। नमः॥८॥
विषय - नीलमीव, सहस्राक्ष, सेनापति और उसके वीर योद्धा ।
भावार्थ -
पूर्वोक्त ( नीलग्रीवाय) नीलमणि से सुभूषित ग्रीवा वाले, अग्रणी, ( सहस्राक्षाय ) सभासद् और प्रणिधि, चरों आदि द्वारा सहस्रों आखों वाले ( मीदुषे ) प्रजा पर सुखों और शत्रु पर बाणों की वर्षा करने 'वाले सूर्य या मेघ के समान उदार, तेजस्वी राजा और सेनापति को ( नमः अस्तु) शत्रुओं को नमाने का वज्र, बल, प्रजा पालन का सामर्थ्य, अन्न और आदर भाव प्राप्त हो। (अथो) और ( ये ) जो ( अस्य ) इसके अधीन (सत्वानः ) और भी सत्यवान्, सामर्थ्यवान्, बलवान् वीर पुरुष हैं ( अहम् ) मैं प्रजाजन ( तेभ्यः ) उनके लिये भी ( नमः ) अन्न आदि भोग्य पदार्थ, शस्त्रास्त्र बल और आदर ( अकरम् ) करूं, उनको दूं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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