यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 60
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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ये प॒थां प॑थि॒रक्ष॑यऽऐलबृ॒दाऽआ॑यु॒र्युधः॑। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६०॥
स्वर सहित पद पाठये। प॒थाम्। प॒थि॒रक्ष॑य इति॑ पथि॒ऽरक्ष॑यः। ऐ॒ल॒बृ॒दाः। आ॒यु॒र्युध॒ इत्या॑युः॒ऽयुधः॑। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥६० ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पथाम्पथिरक्षस ऐलबृदा आयुर्युधः । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
ये। पथाम्। पथिरक्षय इति पथिऽरक्षयः। ऐलबृदाः। आयुर्युध इत्यायुःऽयुधः। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥६०॥
विषय - नाना रुद्रों अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ -
( ये ) जो ( पथाम् ) मार्ग के रक्षक और ( पथिरक्षयः ) मार्ग में चलने वाले यात्रियों के भी रक्षा करने हारे, ( ऐलवृदाः ) अथवा ( ऐलवृधाः ) पृथ्वी पर के अनंत पार्थो को बढ़ाने वाले या पृथ्वी पर उत्पन्न अन्न से सबके पालन में समर्थ अथवा ( = ऐल-भृता: ) अन्नादि द्वारा भरण पोषण किये गये, (
( = ऐल-वृत्ता: ) अन्नादि मात्र की वृत्ति प्राप्त किये हुए केवल ( आयुर्युधः ) जान तोड़ कर शत्रु से लड़ने वाले हैं ( तेषां सहस्र० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥
टिप्पणी -
'पथिरक्षिणः ऐऴ' ० इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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