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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 46
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराट् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
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    नमः॑ प॒र्णाय॑ च पर्णश॒दाय॑ च॒ नम॑ऽउद्गु॒रमा॑णाय चाभिघ्न॒ते च॒ नम॑ऽआखिद॒ते च॑ प्रखिद॒ते च॒ नम॑ऽइषु॒कृद्भ्यो॑ धनु॒ष्कृद्भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ वः किरि॒कभ्यो॑ दे॒वाना॒ हृद॑येभ्यो॒ नमो॑ विचिन्व॒त्केभ्यो॒ नमो॑ विक्षिण॒त्केभ्यो॒ नम॑ऽआनिर्ह॒तेभ्यः॑॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। प॒र्णाय॑। च॒। प॒र्ण॒श॒दायेति॑ पर्णऽश॒दाय॑। च॒। नमः॑। उ॒द्गु॒रमा॑णा॒येत्यु॑त्ऽगु॒रमा॑णाय। च॒। अ॒भि॒घ्न॒त इत्य॑भिऽघ्न॒ते। च॒। नमः॑। आ॒खि॒द॒त इत्या॑ऽखि॒द॒ते। च॒। प्र॒खि॒द॒त इति॑ प्रऽखिद॒ते। च॒। नमः॑। इ॒षु॒कृद्भ्य॒ इती॑षु॒कृत्ऽभ्यः॑। ध॒नु॒ष्कृद्भ्यः॑। ध॒नुः॒ऽकृद्भ्य॒ इति॑ धनुः॒कृत्ऽभ्यः॑। च॒। वः॒। नमः॑। नमः॑। वः॒। कि॒रि॒केभ्यः॑। दे॒वाना॑म्। हृद॑येभ्यः। नमः॑। वि॒चि॒न्व॒त्केभ्य॒ इति॑ विऽचिन्व॒त्केभ्यः॑। नमः॑। वि॒क्षि॒ण॒त्केभ्य॒ इति॑ विऽक्षिण॒त्केभ्यः॑। नमः॑। आ॒नि॒र्ह॒तेभ्य॒ इत्या॑निःऽह॒तेभ्यः॑ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नमऽइषुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यस्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवानाँ हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो विक्षिणत्केभ्यो नमऽआनिर्हतेभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। पर्णाय। च। पर्णशदायेति पर्णऽशदाय। च। नमः। उद्गुरमाणायेत्युत्ऽगुरमाणाय। च। अभिघ्नत इत्यभिऽघ्नते। च। नमः। आखिदत इत्याऽखिदते। च। प्रखिदत इति प्रऽखिदते। च। नमः। इषुकृद्भ्य इतीषुकृत्ऽभ्यः। धनुष्कृद्भ्यः। धनुःऽकृद्भ्य इति धनुःकृत्ऽभ्यः। च। वः। नमः। नमः। वः। किरिकेभ्यः। देवानाम्। हृदयेभ्यः। नमः। विचिन्वत्केभ्य इति विऽचिन्वत्केभ्यः। नमः। विक्षिणत्केभ्य इति विऽक्षिणत्केभ्यः। नमः। आनिर्हतेभ्य इत्यानिःऽहतेभ्यः॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 46
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    भावार्थ -
    ( पर्णाय ) वृक्षों के नीचे गिरे पत्तों के ठेकेदार, ( पर्णशदाय च ) पत्तों के काटने वाले, ( उद्गुरमाणाय च ) भार उठा कर लाने वाले, श्रमी, (अभिधृते) कुठार चला कर वृक्ष काटने वाले, ( आखिदते च ) दोनों पर नियुक्त पुरुष, ( प्रखिदते ) बहुत ही पतित दीनों पर नियुक्त पुरुष अथवा ( आखिदते) पशुओं को हांकने वाले और ( प्रखिदते ) बहुत दीन, ( इषुकृद्भ्यः धनुष्कृद्भ्यः च ) बाण और धनुष बनाने वाले इन सब छोटे मोटे पेशों वाले सबको यथोचित रूप से वृत्ति और अन्न प्राप्त हो। ( किरिकेभ्यः ) नाना प्रकार के काम करने वाले या नाना पदार्थों को कारीगरी से पैदा करने वाले और ( देवानां हृदयेभ्यः ) देव, दिव्य शक्तियों के हृदय अर्थात् मुख्य केन्द्रों के संस्थापक, अग्नि वायु और आदित्य इन की विद्या में कुशल, ( विचिन्वत्केभ्यः ) नये २ पदार्थों तत्वों और पुराने उपयोगी पदार्थों, शत्रुओं और चोरों की खोज लगाने वाले अविष्कारक लोग, ( विक्षिणत्केभ्यः ) और विविध उपायों से शत्रुओं का विनाश करने में कुशल और (आनिर्हतेभ्यः ) गुप्त रूप से सब तरफ शत्रु देश में व्याप जाने वाले इन सब को भी (नमः) उचित वृत्ति प्राप्त हो । शत०९।१।१।२३॥ इन सब नाना रुद्रों की विवेचना भूमिका भाग में विशेष रूप से की जायगी पाठक वहां ही देखें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराड् प्रकृतिः । धैवतः ॥

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