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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    शि॒वेन॒ वच॑सा॒ त्वा॒ गिरि॒शाच्छा॑ वदामसि। यथा॑ नः॒ सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्म सु॒मना॒ऽअस॑त्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒वेन॑। वच॑सा। त्वा॒। गिरि॒शेति॒ गिरि॑ऽश। अच्छ॑। व॒दा॒म॒सि॒। यथा॑। नः॒। सर्व॑म्। इत्। जग॑त्। अ॒य॒क्ष्मम्। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अस॑त् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मँ सुमना असत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शिवेन। वचसा। त्वा। गिरिशेति गिरिऽश। अच्छ। वदामसि। यथा। नः। सर्वम्। इत्। जगत्। अयक्ष्मम्। सुमना इति सुऽमनाः। असत्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 4
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    भावार्थ -
    हे ( गिरिश ) समस्त वाणियों या आज्ञाओं में स्वयं आज्ञापक और व्यवस्थापक रूप से विद्यमान राजन् ! ( त्वा) तुझको हम ( शिवेन वचसा ) कल्याणकारी, सुन्दर वचन से ( अच्छा वदामसि ) भली प्रकार निवेदन करते हैं। ( यथा ) जिससे (नः) हमारा ( सर्वम् इत् जगत् ) समस्त जगत् प्राणि वर्ग और राज्यव्यवहार ( अयक्ष्मम् )राजयक्ष्मा आदि रोगों से रहित ( सुमनाः ) और परस्पर शुभ चित्त वाला ( असत् ) हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः॥

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