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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 24
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    1

    आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य्य॑श्री स्पृह॒यद्व॑र्णोऽअ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा जर्भु॑राणः॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य्य॑श्रीरिति॒ मर्य्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यद्व॑र्ण॒ इति॑ स्पृह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒मृश॒ इत्य॑भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा᳕। जर्भु॑राणः ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ विश्वतः प्रत्यञ्चज्जिघर्म्यरक्षसा मनसा तज्जुषेत । मर्यश्री स्पृहयद्वर्णाऽअग्निर्नाभिमृशे तन्वा जर्भुराणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। विश्वतः। प्रत्यञ्चम्। जिघर्मि। अरक्षसा। मनसा। तत्। जुषेत। मर्य्यश्रीरिति मर्य्यऽश्रीः। स्पृहयद्वर्ण इति स्पृहयत्ऽवर्णः। अग्निः। न। अभिमृश इत्यभिऽमृशे। तन्वा। जर्भुराणः॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -

    १. गृत्समद का ही स्तवन चल रहा है कि ( आ ) = सब प्रकार से ( विश्वतः प्रत्यञ्चम् ) = सब ओर गये हुए, अर्थात् सर्वव्यापक प्रभु को ( जिघर्मि ) = मैं अपने अन्दर दीप्त करता हूँ। 

    २. मनुष्य को चाहिए कि ( अरक्षसा मनसा ) = राक्षसी व आसुरी भावनाओं से रहित पवित्र मन से ( तत् ) = उस ब्रह्म का ( जुषेत ) = प्रीतिपूर्वक सेवन करे। प्रतिदिन आदर-श्रद्धा के साथ उस प्रभु का चिन्तन करने से ही तो हम उस प्रभु के प्रकाश को देख पाएँगे। 

    ३. जिस दिन मैं प्रभु के प्रकाश को देखनेवाला बनता हूँ, उस दिन ( मर्यश्रीः ) = मनुष्यों में शोभावाला बनता हूँ या दुःखी पुरुषों से आश्रयणीय होता हूँ। प्रभु के तेज को प्राप्त करके मैं तेजस्वी बनता हूँ और श्रीसम्पन्न होता हूँ। साथ ही [ श्रि = सेवायाम् ] सब पीड़ित पुरुष अपनी पीड़ा के निराकरण के लिए मेरे समीप पहुँचते हैं। 

    ४. ( स्पृहयद्वर्णः ) = मैं स्पृहणीय वर्णवाला होता हूँ, अन्दर दीप्त होती हुई प्रभु की ज्योति मेरे चेहरे पर भी प्रतिबिम्बित होती है। 

    ५. ( अग्निः न ) = अग्नि के समान ( अभिमृशे ) = [ मृश् to rule, strike ] मैं शत्रुओं को कुचल देता हूँ। अग्नि के तेज में जैसे सब मल भस्म हो जाते हैं, इसी प्रकार प्रभु के तेज से तेजस्वी होने पर मेरे भी राग-द्वेष के सब मल भस्मीभूत हो जाते हैं। 

    ६. और मैं ( तन्वा ) = अपने इस शरीर से ( जर्भुराणः ) = निरन्तर भरण-पोषण करनेवाला बनता हूँ। मेरा यह शरीर लोकहित के कार्यों में विनियुक्त होता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु का उपासन पवित्र मन से होता है। एक सच्चा उपासक लोगों में शोभावाला होता है, उसके चेहरे पर अन्तःस्थित प्रभु का प्रकाश चमकता है, जिसके तेज में सब मल भस्म हो जाते हैं। वह अपने शरीर को प्राजापत्य यज्ञ में आहुत कर देता है।

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