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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 52
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    तस्मा॒ऽअं॑र गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ। आपो॑ ज॒नय॑था च नः॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑। अर॑म्। ग॒मा॒म॒। वः॒। यस्य॑। क्षया॑य। जिन्व॑थ। आपः॑। ज॒नय॑थ। च॒। नः॒ ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्माऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै। अरम्। गमाम। वः। यस्य। क्षयाय। जिन्वथ। आपः। जनयथ। च। नः॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 52
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    पदार्थ -

    १. हे जलो! ( वः ) = आपके ( तस्मै ) = उस रस को पाने के लिए ( अरम् ) = पर्याप्त ( गमाम ) = जानेवाले हों, अर्थात् उस रस को ख़ूब ही प्राप्त करें, ( यस्य क्षयाय ) = [ क्षयेण ] जिस रस के निवास के कारण ( जिन्वथ ) = तुम प्रीणित करते हो, तृप्त करते हो। जलों में एक रस है जो एक अद्भुत तृप्ति अनुभव कराता है। शुद्ध जल से प्राप्त होनेवाली यह तृप्ति अन्य कितने भी स्वादिष्ट पेय-द्रव्यों से प्राप्त नहीं होती अपां हि तृप्ताय वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुषारा। 

    २. ( च ) = और हे ( आपः ) = जलो! आप ( नः ) = हमें ( जनयथ ) = जननशक्ति से युक्त करो अथवा शक्तियों के प्रादुर्भाववाला करो। स्पष्ट है कि जलों के समुचित प्रयोग से जहाँ तृप्ति अनुभव होती है वहाँ ये जल हमारी शक्तियों का विकास करनेवाले होते हैं और जननशक्ति की हीनता को दूर करते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — ये जल अपने अद्भुत रस से हमें प्रीणित करते हैं और शक्तियों के विकास के कारणभूत होकर जननशक्तियुक्त करते हैं।

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