यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 83
ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः
देवता - यजमानपुरोहितौ देवते
छन्दः - उपरिष्टाद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
1
अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देह्यनमी॒वस्य॑ शु॒ष्मिणः॑। प्रप्र॑ दा॒तारं॑ तारिष॒ऽऊर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॥८३॥
स्वर सहित पद पाठअन्न॑पत॒ इत्यन्न॑ऽपते। अन्न॑स्य। नः॒। दे॒हि॒। अ॒न॒मी॒वस्य॑। शु॒ष्मिणः॑। प्र॒प्रेति॒ प्रऽप्र॑। दा॒तार॑म्। ता॒रि॒षः॒। ऊर्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑ऽपद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥८३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्नपतेन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः । प्रप्र दातारन्तारिषऽऊर्जन्नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्नपत इत्यन्नऽपते। अन्नस्य। नः। देहि। अनमीवस्य। शुष्मिणः। प्रप्रेति प्रऽप्र। दातारम्। तारिषः। ऊर्जम्। नः। धेहि। द्विपद इति द्विऽपदे। चतुष्पदे। चतुःऽपद इति चतुःऽपदे॥८३॥
विषय - अनमीव अन्न
पदार्थ -
१. सब प्रकार की उन्नतियाँ अन्न पर निर्भर करती हैं, अतः अन्न के विषय में प्रार्थना करते हैं कि ( अन्नपते ) = हे सब अन्नों के पति प्रभो! ( नः ) = हमें ( अन्नस्य देहि ) = अन्न प्राप्त कराइए। वह अन्न जो ( अनमीवस्य ) = व्याधिरहित है। राजस् अन्न ‘दुःखशोकामयप्रदाः’ = दुःख, शोक और रोग को देनेवाले हैं, अतः हम वही अन्न चाहते हैं जो हमें व्याधियुक्त करनेवाले नहीं, जो ( शुष्मिणः ) = शत्रुओं के शोषक बलवाले हों। जिन अन्नों के सेवन से ‘काम, क्रोध व लोभ’ का भी शोषण होता है और जो अन्न हमें बाह्य शत्रुओं को भी धर्षित करने के लिए शक्ति दें। एवं, अन्न रोगनाशक और बल के हेतु हों। २. हे प्रभो! ( दातारम् ) = देनेवाले को ( प्रतारिष ) = तैरा दो, जीवन के पार लगा दो, जो भी व्यक्ति देकर, बचे हुए को खाता है उससे तो अन्न वस्तुतः खाया जाता है [ अद्यते ], परन्तु जो त्यागपूर्वक उपभोग न करके अकेला ही सब-कुछ खा जाता है, उसे तो यह अन्न ही वस्तुतः खा लेता है [ अत्ति च भूतानि ]। ३. इस प्रकार त्यागपूर्वक उपयुक्त हुआ यह अन्न ( नः ) = हममें ( ऊर्जम् ) = बल व प्राणशक्ति को ( धेहि ) = धारण करे। यदि एक व्यक्ति अन्न को अकेले न खाकर बाँटकर खाता है तो वह बल व प्राणशक्ति को प्राप्त करता है। ४. ( द्विपदे ) = दो पाँववाले मनुष्यों के लिए व ( चतुष्पदे ) = चार पाँववाले पशुओं के लिए भी नीरोगतावाले, शत्रुशोषक बलवाले अन्न को प्राप्त कराइए। मनुष्यों को तो अन्न प्राप्त हो ही, पशुओं को भी अन्न की कमी न रहे, अर्थात् हमारा राष्ट्र विवक और विककमत से भरपूर हो—न मनुष्य भूखें मरें न पशु। राष्ट्र में सर्वत्र सुभिक्ष हो।
भावार्थ -
भावार्थ — १. हमारा अन्न निश्चितरूप से अनमीव [ नीरोग ] व शुष्मी [ बलदायक ] हो। २. हम सदा देकर बचे हुए अन्न को खानेवाले हों। ३. हमारे अन्न हमें बल और प्राणशक्ति दें।
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