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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 40
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    1

    सुजा॑तो॒ ज्योति॑षा स॒ह शर्म॒ वरू॑थ॒मास॑द॒त् स्वः। वासो॑ऽअग्ने वि॒श्वरू॑प॒ꣳ संव्य॑यस्व विभावसो॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सुजा॑त॒ इति॒ सुऽजा॑तः। ज्योति॑षा। स॒ह। शर्म्म॑। वरू॑थम्। आ। अ॒स॒द॒त्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। वासः॑। अ॒ग्ने॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। सम्। व्य॒य॒स्व॒। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमासदत्स्वः । वासोऽअग्ने विश्वरूपँ सँव्ययस्व विभावसो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुजात इति सुऽजातः। ज्योतिषा। सह। शर्म्म। वरूथम्। आ। असदत्। स्वरिति स्वः। वासः। अग्ने। विश्वरूपमिति विश्वऽरूपम्। सम्। व्ययस्व। विभावसो इति विभाऽवसो॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्रों में वर्णित जल और वायु के समुचित प्रयोग के साथ प्रस्तुत मन्त्र में अग्नि के धारण का प्रस्ताव है, परन्तु मुख्यतया यह अग्नि वे प्रभु ही हैं। गौणरूप से यज्ञाङ्गिन भी अभिप्रेत है ही। 

    २. ( सुजातः ) = इस अग्नि के धारण से यह जीव उत्तम [ सु ] विकासवाला [ जातः ] होता है। 

    ३. ( ज्योतिषा सह ) = यह सदा ज्योति, अर्थात् प्रकाश के साथ होता है। 

    ४. ( शर्म ) = आनन्द को ( आसदत् ) = प्राप्त होता है। 

    ५. ( वरूथम् ) = शरीर के लिए रक्षक आवरण का काम देनेवाले [ वरूथ = wealth ] धन को प्राप्त करता है। 

    ६. ( स्वः ) = प्रकाश को व स्वर्ग को भी ( आसदत् ) = प्राप्त करता है। 

    ७. हे ( विभावसो ) = हे प्रकाशरूप धनवाले जीव! ( अग्ने ) = निरन्तर आगे बढ़नेवाले जीव! तू ( विश्वरूपम् ) = सारे ब्रह्माण्ड को रूप देनेवाले ( वासः ) = उस आच्छदक—वासनाओं के आक्रमण से बचानेवाले प्रभुरूप वस्त्र को ( संव्यस्व ) = उत्तमता से धारण कर। जब प्रभु मेरा वस्त्र होंगे, मैं प्रभुरूप वस्त्र से आच्छादित होऊँगा तब वासनाओं की सर्दी-गर्मी व वर्षा-ओले मेरी हानि करनेवाले न होंगे। प्रभु ही उपस्तरण हैं, प्रभु ही अपिधान तब उस प्रभु में सुरक्षित होकर मैं कहीं भी वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त कैसे हो सकता हूँ?

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभुरूप वस्त्र को धारण करने पर मैं सर्दी-गर्मीरूप वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता।

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