यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 54
ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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रु॒द्राः स॒ꣳसृज्य॑ पृथि॒वीं बृ॒हज्ज्योतिः॒ समी॑धिरे। तेषां॑ भा॒नुरज॑स्र॒ऽइच्छु॒क्रो दे॒वेषु॑ रोचते॥५४॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्राः। स॒ꣳसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। पृ॒थि॒वीम्। बृ॒हत्। ज्योतिः॑। सम्। ई॒धि॒रे॒। तेषा॑म्। भा॒नुः। अज॑स्रः। इत्। शु॒क्रः। दे॒वेषु॑। रो॒च॒ते॒ ॥५४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्राः सँसृज्य पृथिवीम्बृहज्ज्योतिः समीधिरे । तेषाम्भानुरजस्रऽइच्छुक्रो देवेषु रोचते ॥
स्वर रहित पद पाठ
रुद्राः। सꣳसृज्येति सम्ऽसृज्य। पृथिवीम्। बृहत्। ज्योतिः। सम्। ईधिर। तेषाम्। भानुः। अजस्रः। इत्। शुक्रः। देवेषु। रोचते॥५४॥
विषय - बृहत् ज्योतिः — शुक्रः
पदार्थ -
१. ( रुद्राः ) = वासनाओं के लिए प्रलयंकर रुद्र बने हुए लोग अथवा [ रोरूयमाणो द्रवति ] निरन्तर प्रभु का नामोच्चारण करके कार्यों में तत्पर हुए लोग ( पृथिवीम् ) = [ प्रथ विस्तारे ] विस्तृत हृदयान्तरिक्ष से ( संसृज्य ) = संसृष्ट होकर, विशाल हृदय से युक्त होकर, उस पवित्र हृदय में ( बृहत् ज्योतिः ) = उस सदा बढ़ी हुई ज्योति, अर्थात् परमात्म-ज्योति को ( समीधिरे ) = सम्यक्तया समिद्ध करते हैं, अर्थात् विशालता से पवित्र हुए अपने हृदय में उस प्रभु की ज्योति को देखने का प्रयत्न करते हैं।
२. ( तेषाम् ) = इन परमात्मदर्शियों का ( भानुः ) = ज्ञान का प्रकाश ( इत् ) = निश्चय से ( अजस्रः ) = निरन्तर होता है। इनके ज्ञान पर वासना का आवरण नहीं आता।
३. ( शुक्रः ) = यह अनावृत ज्ञानवाला पुरुष ( देवेषु ) = विद्वानों में भी ( रोचते ) = चमकता है। ‘शुक्र’ शब्द के दो अर्थ हैं ‘शुच् दीप्तौ’ = [ क ] इसका ज्ञान चमकता हुआ होता है और [ ख ] [ शुक् गतौ ] यह शीघ्रता से कार्य करनेवाला होता है। वस्तुतः यह ज्ञान और कर्म का समन्वय ही इसे देवों में भी देदीप्यमान करता है ‘यस्तु क्रियावान् पुरुषः स पण्डितः’ [ क्रियावान् पुरुष ही पण्डित है ]—इस उक्ति के अनुसार ‘शुक्र’ बनना आवश्यक है।
४. यह शुक्र अपने जीवन में ‘शुक् गतौ’ शरीर की क्रिया को, [ शुचि = पवित्र ] हृदय की पवित्रता को तथा ‘शुक् दीप्तौ’ मस्तिष्क की दीप्ति को समन्वित करके चलता है।
भावार्थ -
भावार्थ — १. वासनाओं को नष्ट करके हम पवित्र हृदय में प्रभु की ज्योति जगाएँ। २. उस ज्योति के जगने पर हमारा यह प्रकाश अविच्छिन्न हो, सतत रहनेवाला हो। ३. हम क्रियाशील, पवित्र व दीप्त बनकर देवों में भी शोभा पाएँ।
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