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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 51
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑। उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। वः॒। शि॒वत॑म॒ इति॑ शि॒वऽत॑मः। रसः॑। तस्य॑। भा॒ज॒य॒त॒। इ॒ह। नः॒। उ॒श॒तीरि॒वेत्यु॑श॒तीःऽइ॑व। मा॒तरः॑ ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। वः। शिवतम इति शिवऽतमः। रसः। तस्य। भाजयत। इह। नः। उशतीरिवेत्युशतीःऽइव। मातरः॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 51
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    पदार्थ -

    १. हे जलो! ( यः ) = जो ( वः ) = तुम्हारा ( शिवतमः रसः ) = अत्यन्त कल्याणकर रस है ( तस्य ) =  उस रस का ( नः ) = हमें ( इह ) = इस मानव-जीवन में ( भाजयत ) = भागी बनाओ। हे जलो! ( उशतीः ) = सन्तान के भले की कामना करती हुई ( मातरः इव ) = माताओं के समान तुम हमारे लिए होओ। 

    २. यहाँ ‘रसः’ शब्द का प्रयोग बड़ा सुन्दर संकेत कर रहा है कि हमें जल का रस लेना है, बड़ा स्वाद लेकर धीमे-धीमे उसे पीना है, उसे अपने अन्दर उलट नहीं लेना। ‘We must eat water’ अर्थात् ‘हमें पानी को खाना चाहिए’ इस वाक्य की भावना यही है। इस प्रकार जलों का रस ग्रहण करेंगे तो ये जल हमारे लिए माताओं के समान हितकर होंगे।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम जलों का आचमन करें। धीमे-धीमे पीएँ, तभी जल हितकर होंगे।

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