यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 1
अग्ने॑ जा॒तान् प्र णु॑दा नः स॒पत्ना॒न् प्रत्यजा॑तान् नुद जातवेदः। अधि॑ नो ब्रूहि सु॒मना॒ऽअहे॑डँ॒स्तव॑ स्याम॒ शर्म॑ꣳस्त्रि॒वरू॑थऽउ॒द्भौ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। जा॒तान्। प्र। नु॒द॒। नः॒। स॒पत्ना॒निति स॒ऽपत्ना॑न्। प्रतिं॑। अजा॑तान्। नु॒द॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। अधि॑। नः॒। ब्रू॒हि॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अहे॑डन्। तव॑। स्या॒म। शर्म॑न्। त्रि॒वरू॑थ इति॑ त्रि॒ऽवरू॑थे। उ॒द्भावित्यु॒त्ऽभौ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने जातान्प्रणुदा नः सपत्नान्प्रत्यजातान्नुद जातवेदः । अधि नो ब्रूहि सुमनाऽअहेडँस्तव स्याम शर्मँस्त्रिवरूथऽउद्भौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। जातान्। प्र। नुद। नः। सपत्नानिति सऽपत्नान्। प्रतिं। अजातान्। नुद। जातवेद इति जातऽवेदः। अधि। नः। ब्रूहि। सुमना इति सुऽमनाः। अहेडन्। तव। स्याम। शर्मन्। त्रिवरूथ इति त्रिऽवरूथे। उद्भावित्युत्ऽभौ॥१॥
विषय - त्रिवरूथ शर्म
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = हमारे सब दोषों का दहन करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे (जातान्) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि में उत्पन्न हुए (सपत्नान्) = काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं को (प्रणुद) = प्रकर्षेण धकेल दीजिए। हमारे जीवन से इन्हें दूर कर दीजिए। आपने इस शरीर की रचना करके मुझे यहाँ अधिष्ठातृदेव के रूप में नियत किया है, परन्तु ये कामादि इसमें अपने किले बनाकर इसपर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, इस प्रकार ये मेरे सपत्न हो जाते हैं। आप इन्हें हमसे दूर भगाने की कृपा कीजिए। २. हे (जातवेदः) = भविष्य में आविर्भूत होनेवाले और इस समय बीजरूप में अंकुरित हो रहे कामादि को भी जाननेवाले प्रभो! आप (अजातान्) = अभी पूर्ण रूप से विकसित न हुए इन कामादि को (प्रतिनुद) = एक-एक करके धकेल दीजिए और इस प्रकार इनके विकास को सम्भव ही न होने दीजिए। ३. (सुमनाः) = हमारे प्रति सदा उत्तम विचारवाले हे प्रभो! सदा जीव का शुभ चाहनेवाले प्रभो! (अहेडन्) = क्रोध न करते हुए आप (नः) = हमें (अधिब्रूहि) = अधिष्ठातृरूपेण हृदय में स्थित हुए उपदेश दीजिए। ४. उस उपदेश के अनुसार चलते हुए हम तव तेरी (त्रिवरूथे) = इन्द्रिय, मन व बुद्धि तीनों की रक्षक - [वरूथ = cover] - भूत अथवा आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक त्रिविध सुखों के हेतुभूत (उद्भौ) = [उत्कृष्टानि वस्तूनि भवन्ति यस्मिन् - द०] उत्तम पदार्थों से युक्त आपकी (शर्मन्) = शरण में (स्याम) = सदा सुख से रहें। ५. आपके सम्पर्क में रहते हुए सदा आगे बढ़नेवाले 'अग्नि' बनकर हम भी परम स्थान में स्थित हों और आपके अनुरूप बनकर प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'परमेष्ठी' बनें।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभुकृपा से हमारे दोष दूर हों, हम प्रभु के सन्देश को सुनें और प्रभु की उस शरण में सदा निवास करें, जो 'काम, क्रोध व लोभ' इन तीनों का निवारण करके [त्रिवरूथ-निवारण] 'प्रेम, दया व दान' आदि उत्कृष्ट भावनाओं को हममें जन्म देती है और इसी कारण 'उद्भि' कहलाती है [ भवतेर्डि : ] ।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal