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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 36
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    सऽइ॑धा॒नो वसु॑ष्क॒विर॒ग्निरी॒डेन्यो॑ गि॒रा। रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। इ॒धा॒नः। वसुः॑। क॒विः। अ॒ग्निः। ई॒डेन्यः॑। गि॒रा। रे॒वत्। अ॒स्मभ्य॑म्। पु॒र्व॒णी॒क॒। पु॒र्वनी॒केति॑ पुरुऽअनीक। दी॒दि॒हि॒ ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सऽइधानो वसुष्कविरग्निरीडेन्यो गिरा । रेवदस्मभ्यम्पुर्वणीक दीदिहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। इधानः। वसुः। कविः। अग्निः। ईडेन्यः। गिरा। रेवत्। अस्मभ्यम्। पुर्वणीक। पुर्वनीकेति पुरुऽअनीक। दीदिहि॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 36
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    पदार्थ -
    १. (सः) = वह प्रभु (इधान:) = स्वभावतः ही ज्ञान से दीप्यमान हैं। 'स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च'। प्रभु स्वयं ज्ञान से दीप्त हैं। जीव को ज्ञान से दीप्त करते हैं। २. (वसुः) = ज्ञान देकर वे हमारे निवास को उत्तम बनाते हैं । ३. (कविः) = [कौति सर्वा विद्या:] वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में सब विद्याओं का उपदेश देते हैं। ४. विद्योपदेश देकर ही वे (अग्निः) = हमारी सब प्रकार की उन्नति को सिद्ध करते हैं, अग्रेणी होते हैं। ५. वस्तुतः ये प्रभु ही (गिरा) = इन सब वेदवाणियों से (ईडेन्यः) = स्तुति के योग्य हैं। 'सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति' यह उपनिषद् वाक्य यही तो कह रहा है कि सारे वेद उस प्रभु का ही प्रतिपादन कर रहे हैं। ('ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्') = सारी ऋचाएँ उस परम अक्षर में ही निषण्ण होती हैं । ६. हे (पुर्वणीक) = अनन्त सैन्य बलवाले प्रभो! अथवा पालक व पूरक बलवाले प्रभो! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (रेवत्) = धनवाले होकर (दीदिहि) = दीप्त होओ, अर्थात् आपकी कृपा से मैं धन प्राप्त करूँ, परन्तु मेरा वह धन ज्ञान की दीप्तिवाला हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- हे प्रभो! हमें धन दीजिए। धन के साथ प्रकाश भी प्राप्त कराइए।

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