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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 26
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं वि॒शेवि॑शे॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। इ॒ह। प्र॒थ॒मः। धा॒यि॒। धा॒तृभि॒रिति॑ धा॒तृऽभिः॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः॑। यम्। अप्न॑वानः। भृग॑वः। वि॒रु॒रु॒चुरिति॑ विऽरु॒रु॒चुः। वने॑षु। चि॒त्रम्। वि॒भ्व᳖मिति॑ वि॒ऽभ्व᳖म्। वि॒शेवि॑श॒ इति॑ वि॒शेऽवि॑शे ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्हाता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वँविशेविशे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। इह। प्रथमः। धायि। धातृभिरिति धातृऽभिः। होता। यजिष्ठः। अध्वरेषु। ईड्यः। यम्। अप्नवानः। भृगवः। विरुरुचुरिति विऽरुरुचुः। वनेषु। चित्रम्। विभ्वमिति विऽभ्वम्। विशेविश इति विशेऽविशे॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 26
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    पदार्थ -
    १. (अयं प्रथमः) = यह आद्य पुरुष-सृष्टि बनने से पहले ही वर्त्तमान स्वयम्भू परमात्मा (इह) = इस मानव-जीवन में (धातृभिः) = धाताओं-लोकहित में लगे व्यक्तियों से धायि = धारण किया जाता है। प्रभु का धारण वही कर पाते हैं जो अधिक-से-अधिक लोकहित में प्रवृत्त होते हैं। २. इन धाताओं से अपने हृदयों में उस प्रभु का धारण होता है जो [क] (होता) = सब-कुछ देनेवाला है-उस दाता प्रभु का स्मरण करते हुए ये भी देनेवाले बनते हैं। [ख] (यजिष्ठ:) = सर्वाधिक पूज्य है सबके साथ सङ्गतीकरणवाला है और वस्तुतः संसार के सभी पदार्थों व इन्द्रियादि का देनेवाला है। जिसका दान निरतिशय है। इस प्रभु का स्मरण करते हुए ये भक्त भी अधिक-से-अधिक प्राणियों के सम्पर्क में आते हैं और उनके कष्टों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। [ग] (अध्वरेष्वीड्यः) = हिंसाशून्य महान् यज्ञों में वह प्रभु ही स्तुति के योग्य है। वस्तुतः उस प्रभु की कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण होते हैं। प्रभु का इस रूप में स्मरण करता हुआ भक्त यज्ञों की सफलता में गर्ववाला नहीं हो जाता। ३. ये प्रभु वे हैं (यम्) = = जिनको [क] (अप्नवानः) = उत्तम यज्ञिय कर्मोंवाले और अतएव उत्तम रूपवाले [ अप्न=A sacrificial act; shape ] (भृगवः) = ज्ञानविदग्ध [भ्रस्ज पाके] तेजस्वी पुरुष (विरुरुचुः) = [रोचयामासुः -म० ] अपने हृदय - मन्दिर में दीप्त किया करते हैं। [ख] जो प्रभु (वनेषु) = सम्भजनशील भक्त पुरुषों में [वन संभक्तौ] अथवा जितेन्द्रिय पुरुषों में [वन् = win] (चित्रम्) = [चित्+र ] ज्ञान देनेवाले हैं तथा [२] (विशेविशे) = प्रत्येक प्रजा में (विभ्वम्) = व्यापक रूप से विद्यमान हैं अथवा प्रत्येक व्यक्ति में विभुत्व शक्ति से युक्त हैं। उस उस को वह वह शक्ति प्राप्त करा रहे हैं। बुद्धिमानों की वे बुद्धि हैं तो बलवानों के वे बल हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु धाताओं से औरों का धारण करनेवालों से धारण किया जाता है। उपासकों को वे प्रभु ज्ञान देते हैं, वे सबको शक्ति प्राप्त कराते हैं।

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