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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 24
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमिवाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वाऽइ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अबो॑धि। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। जना॑नाम्। प्रति॑। धे॒नुमि॒वेति॑ धे॒नुम्ऽइ॑व। आ॒य॒तीमित्या॑ऽय॒तीम्। उ॒षास॑म्। उ॒षस॒मित्यु॒षस॑म्। य॒ह्वा इ॒वेति॑ य॒ह्वाःऽइ॑व। प्र। व॒याम्। उ॒ज्जिहा॑ना॒ इत्यु॒त्ऽजिहा॑नाः। प्र। भा॒नवः॑। सि॒स्र॒ते॒। नाक॑म्। अच्छ॑ ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अबोध्यग्निः समिधा जनानाम्प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् । यह्वाऽइव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अबोधि। अग्निः। समिधेति सम्ऽइधा। जनानाम्। प्रति। धेनुमिवेति धेनुम्ऽइव। आयतीमित्याऽयतीम्। उषासम्। उषसमित्युषसम्। यह्वा इवेति यह्वाःऽइव। प्र। वयाम्। उज्जिहाना इत्युत्ऽजिहानाः। प्र। भानवः। सिस्रते। नाकम्। अच्छ॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र का आत्मद्रष्टा जिन प्रयाणों से चलकर उस स्थिति में पहुँचता है, उनका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (जनानाम्) = [जन् प्रादुर्भाव ] प्रादुर्भाव व जीवन का विकास करनेवाले माता-पिता व आचार्यों की समिधा सन्तान में रक्खी गई ज्ञान दीप्ति से [इन्धू- दीप्ति] (अग्निः) = अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाशवाला युवक (अबोधि) = उद्बुद्ध जीवनवाला बनता है। ब्रह्मचर्याश्रम में यह 'मातृमान् पितृमान् व आचार्यवान् पुरुष' ज्ञान सम्पन्न हो पाता है। २. अब यह आचार्यकुल से समावृत्त होकर जीवन-यात्रा के दूसरे प्रयाण गृहस्थ में प्रवेश करता है और प्रति (आयतीम् उषासम्) = प्रत्येक आनेवाले उष:काल में यह (जनानाम्) = सब लोगों के - 'ब्रह्मचारी, वनस्थ व संन्यासियों' के लिए (धेनुम् इव) = धेनु के समान होता है। ३. गृहस्थ-भार वहन कर चुकने के बाद सब सन्तानों को यथास्थान स्थापित कर देने पर (इव) = जैसे (यह्वाः) = [महान्तः जातपक्षा:- उ०] उत्पन्न पंखोंवाले पक्षी (वयाम्) = शाखा को छोड़कर आगे बढ़नेवाले होते हैं, इसी प्रकार गृहस्थ (यह्वाः) = बड़े होकर [यातश्च हूतः च] प्रभु की ओर चलनेवाले व प्रभु को ही पुकारनेवाले होकर (वयाम्) = इस प्रजातन्तु सन्तानवाले आश्रम को (प्रउज्जिहानाः) = प्रकर्षेण छोड़ने की इच्छावाले होते हैं। नहीं छोड़ते तो जैसे पक्षी को उसी के माता-पिता चोचें मारकर निकाल देते हैं, उसी प्रकार यहाँ सन्तानें तङ्ग करके निकलने के लिए बाधित कर देती हैं। ४. अब वानप्रस्थ में निरन्तर स्वाध्याय से (प्रभानवः) = प्रकृष्ट ज्ञान- दीप्तिवाले बनकर (नाकम् अच्छ) = उस क्लेश लव से अपरामृष्ट, पूर्णानन्दमय रस नामवाले प्रभु की ओर (सिस्रते) = बढ़ चलते हैं [प्रसर्पन्ति - द०] । संन्यासी सब उत्तरदायित्वों से निपटकर भूतहित में प्रवृत्त हुआ हुआ प्रभु की ओर ही तो बढ़ रहा है।

    भावार्थ - भावार्थ- जीवन के चार प्रयाण= पड़ाव हैं। प्रथम में ज्ञानदीप्त बनना है, द्वितीय में तृतीय में घर को छोड़ वनस्थ हो उस प्रभु की ओर चलना है, सभी का पालन करना है, उसी को पुकारना है और चतुर्थ में प्रकृष्ट दीप्तिवाले होकर प्रभु को पाना है।

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