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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 65
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स॒हस्र॑स्य प्र॒मासि॑ स॒हस्र॑स्य प्रति॒मासि॑ स॒हस्र॑स्यो॒न्मासि॑ सा॒ह॒स्रोऽसि स॒हस्रा॑य त्वा॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑स्य। प्र॒मेति॑ प्र॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। उ॒न्मेत्यु॒त्ऽमा। अ॒सि॒। सा॒ह॒स्रः। अ॒सि॒। स॒हस्रा॑य। त्वा॒ ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रस्य प्रमासि सहस्रस्य प्रतिमासि सहस्रस्योन्मासि साहस्रोसि सहस्राय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रस्य। प्रमेति प्रऽमा। असि। सहस्रस्य। प्रतिमेति प्रतिऽमा। असि। सहस्रस्य। उन्मेत्युत्ऽमा। असि। साहस्रः। असि। सहस्राय। त्वा॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 65
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति पर 'तया देवतया''उस देवता के साथ, उस देवाधिदेव प्रभु के सम्पर्क में' ये शब्द थे। उन्हीं का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि तू (सहस्रस्य) = सदा आनन्दस्वरूप [स+हस्] उस परमात्मा का (प्रमा असि) = ज्ञान प्राप्त करनेवाला है। २. उसका ज्ञान प्राप्त करके (सहस्त्रस्य प्रतिमा असि) = तू उसकी प्रतिमा बना है। उस प्रभु का ही छोटा रूप बनने का तू प्रयत्न करता है। ३. उसका रूप बनने के लिए ही तू (सहस्रस्य) = उस सदा आनन्दमय परमात्मा का (उन्मा असि) = उत्तोलन करता है। उसके गुणों का चिन्तन करता हुआ उन गुणों को अपने में लेने का प्रयत्न करता है। ४. और वस्तुतः इस प्रकार होने से ही तू (साहस्त्र:) = उस सहस्र प्रभु का सच्चा भक्त असि बनता है। भक्त तो वही है जो भक्तिभाजन के गुणों का उत्तोलन करके उन्हें अपने में धारण करे। ५. इस सहस्र के भक्त बने हुए (त्वा सहस्राय) = तुझे मैं उस सहस्र प्रभु को पाने के लिए नियुक्त करता हूँ, अर्थात् प्रभु-भक्त बनकर तू उस प्रभु को पानेवाला हो जाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम आनन्दमय प्रभु का ज्ञान प्राप्त करें और प्रभु के अनुरूप बनने के लिए यत्नशील हों, प्रभु के गुणों का उत्तोलन करें और सच्चे प्रभु-भक्त बनकर प्रभु को पाने के पात्र बनें। यहाँ पञ्चदशाध्याय की समाप्ति पर 'साहस्र' बनने का उल्लेख है। 'साहस्र' आनन्दमय प्रभु का भक्त है। यह साहस्र १६वें अध्याय में प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है कि

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