यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 30
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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सꣳस॒मिद्यु॑वसे वृष॒न्नग्ने॒ विश्वा॑न्य॒र्य्यऽआ। इ॒डस्प॒दे समि॑ध्यसे॒ स नो॒ वसू॒न्याभ॑र॥३०॥
स्वर सहित पद पाठसꣳस॒मिति॒ सम्ऽस॑म्। इत्। यु॒व॒से॒। वृ॒ष॒न्। अग्ने॑। विश्वा॑नि। अ॒र्य्यः। आ। इडः॒। प॒दे। सम्। इ॒ध्य॒से॒। सः। नः॒। वसू॑नि। आ। भ॒र॒ ॥३० ॥
स्वर रहित मन्त्र
सँसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ । इडस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥
स्वर रहित पद पाठ
सꣳसमिति सम्ऽसम्। इत्। युवसे। वृषन्। अग्ने। विश्वानि। अर्य्यः। आ। इडः। पदे। सम्। इध्यसे। सः। नः। वसूनि। आ। भर॥३०॥
विषय - वृषन्
पदार्थ -
१. हे प्रभो! आप (इत्) = निश्चय से (सं सं युवसे) = हम सबको उत्तमता से प्राप्त होनेवाले हो तथा हम सबको परस्पर सङ्गत करनेवाले हो । २. (वृषन्) = आप हमपर सुखों की वर्षा करते हो। ३. (अग्ने) = आप सबको आगे ले चलनेवाले हैं। ४. (अर्य:) = स्वामी व परमेश्वर होते हुए आप (विश्वानि) = सब आवश्यक वस्तुओं को आ (युवसे) = हमें प्राप्त कराते हो । ५. (इडः पदे) = वाणी के स्थान में (समिध्यसे) = आप समिद्ध होते हो। जितना जितना हम अपने ज्ञान को बढ़ाते हैं उतना उतना आपके अधिकाधिक प्रकाश को देखते हैं । ६. (सः) = वे आप (न:) = हमारे लिए (वसूनि) = उत्तम धनों-निवास के लिए आवश्यक पदार्थों को (आभर) = प्राप्त कराइए।
भावार्थ - भावार्थ- वे प्रभु हमें परस्पर मिलाते हैं। हमपर सुखों की वर्षा करते हैं। हमें उन्नत करते हैं। परमेश्वर होते हुए सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं। उस प्रभु का दर्शन ज्ञानवाणियों के अध्ययन से ज्ञान को बढ़ाकर होता है। =
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