यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - भुरिगाकृतिः
स्वरः - पञ्चमः
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एव॒श्छन्दो॒ वरि॑व॒श्छन्दः॑ श॒म्भूश्छन्दः॑ परि॒भूश्छन्द॑ऽआ॒च्छच्छन्दो॒ मन॒श्छन्दो॒ व्यच॒श्छन्दः॒॑ सिन्धु॒श्छन्दः॑ समु॒द्रश्छन्दः॑ सरिरं॒ छन्दः॑ क॒कुप् छन्द॑स्त्रिक॒कुप् छन्दः॑ का॒व्यं छन्दो॑ऽअङ्कु॒पं छन्दो॒ऽक्षर॑पङ्क्ति॒श्छन्दः॑ प॒दप॑ङ्क्ति॒श्छन्दो॑ विष्टा॒रप॑ङ्क्ति॒श्छन्दः क्षु॒रश्छन्दो॒ भ्रज॒श्छन्दः॑॥४॥
स्वर सहित पद पाठएवः॑। छन्दः॑। वरि॑वः। छन्दः॑। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। छन्दः॑। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। छन्दः॑। आ॒च्छदित्या॒ऽच्छत्। छन्दः॑। मनः॑। छन्दः॑। व्यचः॑। छन्दः॑। सिन्धुः॑। छन्दः॑। स॒मु॒द्रः। छन्दः॑। स॒रि॒रम्। छन्दः॑। क॒कुप्। छन्दः॑। त्रि॒क॒कुबिति॑ त्रिऽक॒कुप्। छन्दः॑। का॒व्यम्। छन्दः॑। अ॒ङकु॒पम्। छन्दः॑। अ॒क्षर॑पङ्क्ति॒रित्य॒क्षर॑ऽपङ्क्तिः। छन्दः॑। प॒दप॑ङ्क्तिरिति॑ प॒दऽप॑ङ्क्तिः। छन्दः॑। वि॒ष्टा॒रप॑ङ्क्तिः। वि॒स्ता॒रप॑ङ्क्ति॒रिति॑ विस्ता॒रऽप॑ङ्क्तिः। छन्दः॑। क्षु॒रः। छन्दः॑। भ्रजः॑। छन्दः॑ ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवश्छन्दो वरिवश्छन्दः शम्भूश्छन्दः परिभूश्छन्दऽआच्छच्छन्दो मनश्छन्दो व्यचश्छन्दः सिन्धुश्छन्दः समुद्रश्छन्दः सरिरञ्छन्दः ककुप्छन्दस्त्रिककुप्छन्दः काव्यञ्छन्दोऽअङ्कुपञ्छन्दोक्षरपङ्क्तिश्छन्दः पदपङ्क्तिश्छन्दो विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः क्षुरो भ्राजश्छन्दऽआच्छच्छन्दः प्रच्छच्छन्दः ॥
स्वर रहित पद पाठ
एवः। छन्दः। वरिवः। छन्दः। शम्भूरिति शम्ऽभूः। छन्दः। परिभूरिति परिऽभूः। छन्दः। आच्छदित्याऽच्छत्। छन्दः। मनः। छन्दः। व्यचः। छन्दः। सिन्धुः। छन्दः। समुद्रः। छन्दः। सरिरम्। छन्दः। ककुप्। छन्दः। त्रिककुबिति त्रिऽककुप्। छन्दः। काव्यम्। छन्दः। अङकुपम्। छन्दः। अक्षरपङ्क्तिरित्यक्षरऽपङ्क्तिः। छन्दः। पदपङ्क्तिरिति पदऽपङ्क्तिः। छन्दः। विष्टारपङ्क्तिः। विस्तारपङ्क्तिरिति विस्तारऽपङ्क्तिः। छन्दः। क्षुरः। छन्दः। भ्रजः। छन्दः॥४॥
विषय - इस लोक से उस लोक तक
पदार्थ -
१. प्रभु 'परमेष्ठी ' = परम स्थान में स्थित होने के निश्चयवाले से कहते हैं कि तेरी (एव: छन्दः) = ज्ञान की कामना हो। 'एव' की मूल भावना गति है - 'गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च' इस आधार से गति का अर्थ ज्ञान हो जाता है। २. ज्ञान प्राप्त करके तेरी (वरिवः छन्दः) = [वरिवस्या तु शुश्रूषा] सेवा की कामना हो। ज्ञान प्राप्त करके तू अधिक-से-अधिक लोकहित करनेवाला हो। ३. (शम्भूः छन्दः) = शान्ति के उत्पादन की तेरी इच्छा हो, सबको सुखी करने की तेरी भावना हो। ४. (परिभूः छन्दः) = [सर्वतः पुरुषार्थी - द०] शारीरिक, मानस, बौद्धिक व सामाजिक विकास के लिए तेरी विविध पुरुषार्थों की कामना हो । ५. (आच्छत् छन्दः) = इस व्यापक पुरुषार्थ के द्वारा [दोषापवारणम्-द०] दोषों के दूर करने की तेरी कामना हो । निरन्तर पुरुषार्थ में लगा व्यक्ति दोषों से बचा रहता है। ६. (मनः छन्दः) = दोषापवारण द्वारा निर्मल मन से तू उत्तम मनन का संकल्प कर, तेरा विचार उत्तम हो । ७. (व्यचः छन्दः) = [शुभगुणव्याप्तिः - द० ] इस मन को तू शुभ गुणों से व्याप्त करने की इच्छा कर अथवा विस्तृत मनवाला होने की इच्छा कर। ८. (सिन्धुः छन्दः) = [नदीव चलनम् - द० ] नदी की भाँति स्वाभाविक कर्म की वृत्तिवाला बनने की इच्छा कर। ९. (समुद्रः छन्दः) = समुद्र के समान गम्भीर बनने की कामना कर अथवा सदा प्रसन्न रहने का प्रयत्न कर [स+मुद्र] १०. (सरिरं छन्दः) = बहनेवाले जल की भाँति तू शान्त होने की कामना कर। ११. उल्लिखित गुणों को धारण करके (ककुप् छन्दः) = शिखर तेरी इच्छा हो । तू शिखर पर पहुँचने का संकल्प कर। १२. (त्रिककुप् छन्दः) = शरीर, मन व बुद्धि तीनों दृष्टिकोणों से शिखर पर पहुँचने की तेरी कामना हो अथवा धन, बल व ज्ञान तीनों में तू अग्रणी बनने की भावना रख। 'प्रेम, दया व दान' ये तीनों तुझे उच्च स्थानों में स्थित करें। १३. काव्यं छन्दःप्रभु का अजरामर वेदरूपी काव्य तेरी कामना का विषय बने। इसके द्वारा तू सब सत्य विद्याओं का जाननेवाला बन, कर्त्तव्याकर्त्तव्य को समझ । १४. कर्त्तव्याकर्त्तव्य को समझकर (अकुपं छन्दः) = कुटिलता से अपने को आक्रान्त न होने देने की कामना कर [अङ्को: पाति ] । 'अकुटिलता व आर्जव ही ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग है' इस बात को न भूल। १५. अकुटिल व सरल बनकर तू (अक्षरपंक्ति: छन्दः)- उस अविनाशी परमात्मा में अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंवाला हो [अक्षरे पंक्ति: यस्य ] । तेरी कामना यही हो कि सब ज्ञानेन्द्रियाँ प्रत्येक वस्तु में प्रभु महिमा को देखनेवाली हों । १६. (पदपंक्तिः छन्दः) = प्रभु का स्मरण करते हुए [ पदे पंक्तिर्यस्य] तू सदा उत्तम मार्ग पर चलनेवाला बन। तेरी कामना यही हो कि मेरी कर्मेन्द्रियाँ धर्ममार्ग से रेखामात्र भी विचलित न हों । १७. इस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों से ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हुए तथा कर्मेन्द्रियों से धर्ममार्ग पर चलते हुए तू यह कामना कर कि (विष्टारपंक्तिः छन्दः) = [विष्टारे पंक्ति: यस्य] सब शक्तियों के विस्तार में तेरे पाँचों प्राण विनियुक्त हों। तेरी सब शक्ति विस्तार व वृद्धि के लिए हो। १८. इस शक्तियों के निरन्तर विस्तार से (क्षुरोभ्रजः छन्दः) = [असौ वा आदित्यः क्षुरोभ्रजश्छन्दः - श० ८।५।२।४] आदित्य बनने की तेरी कामना हो । आदित्य 'क्षुर' है। यह सब अन्धकार का छेदन - विलेखन करता है, यह भ्रज है 'भ्राजते ' दीप्त होता है। तू भी अज्ञानान्धकार का विलेखन करके ज्ञान दीप्ति से भ्राजमान होने के लिए प्रबल कामना व यत्नवाला हो । १९. प्रस्तुत मन्त्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसका प्रारम्भ 'एवः' से है, जिसका अर्थ ज्ञान है- ज्ञान प्राप्ति के लिए गतिशीलता है और मन्त्र की समाप्ति पर सूर्य की भाँति अन्धकार का विलेखन करके ज्ञान से दीप्त होने का उपदेश है। संक्षेप में ज्ञान से प्रारम्भ है और ज्ञान पर ही अन्त है। वस्तुतः मनुष्य को मनुष्य बनानेवाला यह ज्ञान ही है। ज्ञान ही उसे ऊँचा उठाता हुआ 'परमेष्ठी' बनाएगा।
भावार्थ - भावार्थ - इस जीवन में मेरी कामना मन्त्र - वर्णित १८ शब्दों के अनुसार हो । 'ज्ञान, सेवा, शान्ति, पुरुषार्थ, दोषापावरण, मनन, आत्म-विस्तार एवं सद्गुण ग्रहण, सहज क्रियाएँ, गम्भीरता, शान्ति व माधुर्य, शिखर पर पहुँचना, स्वास्थ्य नैर्मल्य, प्रभु के काव्य को अपनाना, अकुटिलता, सदा प्रभु स्मरण, न्यायमार्ग प्रवृत्ति, शक्ति-विस्तार, अन्धकार विलेखन व ज्ञान- दीप्ति' ये मेरी कामना के विषय हों।
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