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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 37
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    क्ष॒पो रा॑जन्नु॒त त्मनाग्ने॒ वस्तो॑रु॒तोषसः॑। स ति॑ग्मजम्भ र॒क्षसो॑ दह॒ प्रति॑॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒पः। रा॒ज॒न्। उ॒त। त्मना॑। अग्ने॑। वस्तोः॑। उ॒त। उ॒षसः॑। सः। ति॒ग्म॒ज॒म्भेति॑ तिग्मऽजम्भ। र॒क्षसः॑। द॒ह॒। प्रति॑ ॥३७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः । स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्षपः। राजन्। उत। त्मना। अग्ने। वस्तोः। उत। उषसः। सः। तिग्मजम्भेति तिग्मऽजम्भ। रक्षसः। दह। प्रति॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -
    १. हे (तिग्मजम्भ) = [तिग्म-वज्र] वज्र के समान दंष्ट्रावाले अथवा तीक्ष्ण दंष्ट्रावाले ! (राजन्) = राष्ट्र के जीवन को व्यवस्थित करनेवाले राजन्! (अग्ने) = राष्ट्र को उन्नत करनेवाले अग्रेणी ! (सः) = वे आप (त्मना) = स्वयं (क्षपः) = रात्रि में [नि० १।७] (उत) = और (वस्तोः) = दिन में [नि० १।९] (उत) = और (उषसः) = उषःकालों में (रक्षसः) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले लोगों को (प्रतिदह) = एक-एक को भस्म कर दीजिए । २. यहाँ 'तिग्मजम्भ' शब्द स्पष्ट कह रहा है कि राजा को राक्षसी वृत्तिवालों के लिए तीव्र दण्डवाला होना है । ३. राजा ने उचित दण्ड- व्यवस्था के द्वारा प्रजा के जीवन को व्यवस्थित [regulated] करना है। तभी तो वह 'राजा' कहलाने के योग्य होगा । ४. प्रजा के व्यवस्थित जीवन के द्वारा राष्ट्र की उन्नति करनेवाला, राष्ट्र को आगे ले चलनेवाला यह राजा 'अग्नि' है। ५. यह सब कार्य उसे स्वयं करना है। ऐसा संकेत 'त्मना' शब्द कर रहा है। कर्मचारी वर्ग पर कार्यभार डालकर वह स्वयं आमोद-प्रमोद में ही न फँस जाए। ६. राजा ने अपने इस कार्य में क्या दिन क्या रात व क्या उषःकाल सदा लगे रहना है। उसे तो 'जागृवि' बनना है। सदा जागते रहकर प्रजा का हित साधन करना है। ७. ऐसी सब व्यवस्था होने पर ही राष्ट्र में राक्षसी वृत्ति के लोग नहीं पनप पाते और राष्ट्र दिन-ब-दिन उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता है।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा यथार्हदण्ड होकर राष्ट्र में राक्षसी वृत्ति का अन्त करे। इस सुरक्षित राष्ट्र में सब व्यक्ति उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

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