यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 34
यम॒श्विना॒ नमु॑चेरासु॒रादधि॒ सर॑स्व॒त्यसु॑नोदिन्द्रि॒याय॑। इ॒मं तꣳ शु॒क्रं मधु॑मन्त॒मिन्दु॒ꣳ सोम॒ꣳ राजा॑नमि॒ह भ॑क्षयामि॥३४॥
स्वर सहित पद पाठयम्। अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। आ॒सु॒रात्। अधि॑। सर॑स्वती। असु॑नोत्। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। तम्। शु॒क्रम्। मधु॑मन्तम्। इन्दु॑म्। सोम॑म्। राजा॑नम्। इ॒ह। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥३४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमश्विना नमुचेरासुरादधि सरस्वत्यसुनोदिन्द्रियाय । इमन्तँ शुक्रम्मधुमन्तमिन्दुँ सोमँ राजानमिह भक्षयामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
यम्। अश्विना। नमुचेः। आसुरात्। अधि। सरस्वती। असुनोत्। इन्द्रियाय। इमम्। तम्। शुक्रम्। मधुमन्तम्। इन्दुम्। सोमम्। राजानम्। इह। भक्षयामि॥३४॥
विषय - देह में शुक्र के समान राजा के ऐश्वर्यवान् पद का सार्वजनिक उपभोग ।
भावार्थ -
(अश्विनौ) राष्ट्र के स्त्री और पुरुष सूर्य और चन्द्रवत् तापकारी और सौम्यस्वभाव के सभाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष दो अधिकारी और (सरस्वती) वेदवाणी से विज्ञ विद्वानों की सभा, ( नमुचेः ) कर आदि न देने वाले या दुर्भिक्षकालिक मेघ के समान प्रजा के निमित्त कुछ भी सुख प्रदान न करने वाले (आसुरात् ) असुर, दुष्ट स्वभाव के राजा से (अधि) अधिक बलवान् (यम) जिस बलवान् पुरुष को ( असुनोत् ) अभिषिक्त करती है, राज्यपद पर बैठाती है (तम् ) उस ( इमम् ) इस प्रत्यक्ष ( शुक्रम् ) बलवान् तेजस्वी, ( मधुमन्तम् ) अन्न आदि ऐश्वर्य और शत्रु पीड़नकारी बल से युक्त, ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यकारी या दुखी प्रजा के प्रति दयार्द्र (सोमम् ) सन्मार्ग में प्रेरणा करने में समर्थ पुरुष को, (राजानम् ) राजा रूप से (इह) इस राष्ट्र में (भक्षयामि) ऐश्वर्य के भोग का अधिकार प्रदान करता हूँ । शत० १२ । ८ । १ । ३॥
यह राजा का भोग ऐसा ही है जैसे ग्रहों का राशि भोग, अथवा व्यवहार में किसी के 'स्वास्थ्य का पान' प्रचलित है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सोमः । त्रिष्टुप् । धैतवः ॥
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