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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 70
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    उ॒शन्त॑स्त्वा॒ नि धी॑मह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒तऽआ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ऽअत्त॑वे॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शन्तः॑। त्वा॒। नि। धी॒म॒हि॒। उ॒शन्तः॑। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। उ॒शन्। उ॒श॒तः। आ। व॒ह॒। पि॒तॄन्। ह॒विषे॑। अत्त॑वे ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशतऽआवह पितऋृन्हविषेऽअत्तवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उशन्तः। त्वा। नि। धीमहि। उशन्तः। सम्। इधीमहि। उशन्। उशतः। आ। वह। पितॄन्। हविषे। अत्तवे॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 70
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! पुत्र के समान प्रिय राजन् ! हम लोग ( उशन्तः ) कामना करते हुए (त्वा) तुझको (नि धीमहि ) राज्यासन पर स्थापित करते हैं । और (उशन्तः) कामनावान् होकर ही ( सम् - इधीमहि ) सब मिल कर तुझे अग्नि के समान नित्य प्रदीप्त अर्थात् अधिक तेजस्वी करते हैं । तू ( उशन् ) स्वयं भी यश और अर्थ की कामना करता हुआ (उशतः) कामना वाले ( पितॄन् ) राज्य के पालक हम लोगों को (हविषे भत्तवे) अन्न, कर आदि ग्राह्य पदार्थों को प्राप्त करने के लिये (आ वह) चल ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पितरः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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