यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 81
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - वरुणो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
2
तद॑स्य रू॒पम॒मृत॒ꣳ शची॑भिस्ति॒स्रो द॑धु॒र्दे॒वताः॑ सꣳररा॒णाः। लोमा॑नि॒ शष्पै॑र्बहु॒धा न तोक्म॑भि॒स्त्वग॑स्य मा॒सम॑भव॒न्न ला॒जाः॥८१॥
स्वर सहित पद पाठतत्। अ॒स्य॒। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। शची॑भिः। ति॒स्रः। द॒धुः॒। दे॒वताः॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽररा॒णाः। लोमा॑नि। शष्पैः॑। ब॒हु॒धा। न। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। त्वक्। अ॒स्य॒। मा॒सम्। अ॒भ॒व॒त्। न। ला॒जाः ॥८१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदस्य रूपममृतँ शचीभिस्तस्रो दधुर्देवताः सँरराणाः । लोमानि शष्पैर्बहुधा न तोक्मभिस्त्वगस्य माँसमभवन्न लाजाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। अस्य। रूपम्। अमृतम्। शचीभिः। तिस्रः। दधुः। देवताः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। लोमानि। शष्पैः। बहुधा। न। तोक्मभिरिति तोक्मऽभिः। त्वक्। अस्य। मासम्। अभवत्। न। लाजाः॥८१॥
विषय - दो अश्वी और सरस्वती तीनों का राष्ट्ररक्षा और पोषण के साधनों का उत्पादन ।
भावार्थ -
( तिस्रः देवताः ) तीनों विजयशाली देवगण, ( शचीभिः ) अपनी-अपनी शक्तियों से (अस्य) इस राष्ट्र-प्रजा- पालक राजा को (अमृत्तम् ) अविनाशी, अखण्ड ( रूपम् ) रूप (संरराणाः) अच्छी प्रकार प्रदान करते हुए ( दधुः ) धारण-पोषण करते हैं । वे (बहुधा) बहुत प्रकारों के (शष्पैः) शष्पों अर्थात् शत्रुओं को मारने और पालन करने वाले साधन अस्त्र-शस्त्रों से (अस्य लोमानि संदधुः) इस राष्ट्रमय प्रजापति के रोमों को निर्माण करते हैं। जैसे पशु के शरीर पर बाल रक्षा करते हैं और सेहे के शरीर के रोमरूप कांटे ही उसकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार शस्त्रास्त्र भी राजा और राज्य शरीर की रक्षा करते हैं । (न) और ( तोक्मभिः) शत्रु को व्यथा देने और मारने वाले सेनाओं के बल एवं महास्त्रों द्वारा वे विद्वान् (अस्य) इस राष्ट्रमय प्रजापति के ( त्वक् ) शरीर पर लगी त्वचा के समान आवरण, परकोट की रचना करते हैं । बड़ी-बड़ी सेनाएं और पंरकोट आदि राष्ट्र की त्वचा के समान हैं। (न) और (लाजा:) शोभाजनक, कान्तिमान् विभूतियां ही (मांसम् ) इसका 'मांस' अर्थात् मन को लुभाने वाले पदार्थ के समान ( अभवन् ) हैं । उस समृद्धि से ही राष्ट्र हृष्ट-पुष्ट रहता है, दूसरे उसी को देखकर लुभा जाते हैं, उनका मन हरने से ही समृद्धियां 'मांस' के समान हैं ।
'न' - अध्याय समाप्तिपर्यन्तं नकराः सर्वे चकारार्थाः इति महीधरः । नकारः समुच्चये आ अध्यायपरिसमाप्तेरिति उवटः । यज्ञपक्षे –'न' निषेधार्थे इति दयानन्दः | स्वाध्याय यज्ञक्षप में - शिष्य गुरु और परीक्षक, परस्पर ज्ञान का आदान-प्रदान करते हुए इसके अमृतरूप को धारण करते हैं । और लम्बे-लम्बे बालों के सहित लोमों को धारण करते हैं अर्थात् जटिल होकर व्रत से रहते हैं । (न तोक्मभिः) बालकों से यह यज्ञ नहीं होता । और ( अस्य त्वग् मांसम् लाजा न अभवन् ) उसके हवि में त्वचा, मांस, खीलें आदि हवि नहीं होतीं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्व्यादयः । अश्विनौ सविता सरस्वती वरुणश्च देवताः। भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः॥
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