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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 89
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒श्विभ्यां॒ चक्षु॑र॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्यां॒ छागे॑न॒ तेजो॑ ह॒विषा॑ शृ॒तेन॑। पक्ष्मा॑णि गो॒धूमैः॒ कुव॑लैरु॒तानि॒ पेशो॒ न शु॒क्रमसि॑तं वसाते॥८९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। छागे॑न। तेजः॑। ह॒विषा॑। शृ॒तेन॑। पक्ष्मा॑णि। गो॒धूमैः॑। कुव॑लैः। उ॒तानि॑। पेशः॑। न। शु॒क्रम्। असि॑तम्। व॒सा॒ते॒ऽइति॑ वसाते ॥८९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विभ्याञ्चक्षुरमृतङ्ग्रहाभ्याञ्छागेन तेजो हविषा शृतेन । पक्ष्माणि गोधूमैः कुवलैरुतानि पेशो न शुक्रमसितँवसाते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। चक्षुः। अमृतम्। ग्रहाभ्याम्। छागेन। तेजः। हविषा। शृतेन। पक्ष्माणि। गोधूमैः। कुवलैः। उतानि। पेशः। न। शुक्रम्। असितम्। वसातेऽइति वसाते॥८९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 89
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    भावार्थ -
    ( ग्रहाभ्याम् ) एक दूसरे को ग्रहण या स्वीकार करनेवाले (अश्विभ्याम्) एक दूसरे को हृदय में व्याप्त करके परस्पर का सुख भोग वाले राजा प्रजा और स्त्री-पुरुष दोनों से ही राजा या ऐश्वर्यमय राष्ट्र की ( अमृतम् ) अमृतमय (चक्षुः) शरीर में आंख के समान सत् असत् दिखाने वाली चक्षु बनती है ( छागेन ) बकरी के दूध से और ( श्रतेन हविषा ) परिपक्व अन्न से जिस प्रकार शरीर में चक्षु के ( तेजः ) तेज, कान्ति की वृद्धि ही होती है उसी प्रकार राष्ट्र के शरीर में (छागेन) पर पक्ष के छेदन करनेवाले तर्क अथवा सैन्यबल से ( शृतेन हविषा ) संपक्व अन्न के भोजन से (तेजः) तेज, बल पराक्रम की वृद्धि होती है । ( पक्ष्माणि ) आंख के पलकों के बाल राष्ट्र में उनकी तुलना ( गोधूमैः ) खेत में उगे गेहूँ आदि धान्यों से करनी चाहिये । ( उतानि ) आंख के बचाव के लिये भौंहों के बालों की तुलना (कुवलैः) राष्ट्र भूमि में उगे झरबेरियों व कांटेदार वृक्षों से है । जैसे - (शुक्रम असितं न ) श्वेत और काला ( पेशः ) दोनों प्रकार के चर्म (बसाते) आंख को ढके हुए हैं वैसे राष्ट्ररूप चक्षु को (शुक्रम) शुद्ध, कान्तिमान् स्वर्ण रजतादि धातु और ( असितम् ) काले वर्ण के लोहे, सीसा आदि धातु दोनों (पेश: ) बहुमूल्य सुवर्ण आदि पदार्थ को अथवा (शुक्रम असितं पेशः) श्वेत और काले, उजले और कृष्ण वर्ण के अथवा गृहस्थ और मुमुक्षु लोग (वसाते ) राष्ट्र को बसा रहे हैं, राष्ट्रवासी स्त्री- पुरुष राष्ट्र को एक आंख का रूप देते हैं । शस्त्र बल और अन्न उसका तेज है, गेहूँ, धान उसकी पलके हैं, बेरी आदि कांटेदार वृक्ष भौंहें । गोरे और काले या गृहस्थ और मुमुक्षु आदमी या उजली काली धातुएं यह चमकदार और बेचमकदार काले सफेद पदार्थ उसके भीतरी चमड़े हैं जो उसको ढांपते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्व्यादयः । अश्विनौ देवते । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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