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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    यद॒द्य सूर॒ऽउदि॒तेऽना॑गा मि॒त्रोऽअ॑र्य्य॒मा।सु॒वाति॑ सवि॒ता भगः॑॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अ॒द्य। सूरे॑। उदि॑त॒ऽइत्युत्ऽइ॑ते। अना॑गाः। मि॒त्रः। अ॒र्य्य॒मा ॥ सु॒वाति॑। स॒वि॒ता। भगः॑ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य सूरऽउदिते नागा मित्रोऽअर्यमा । सुवाति सविता भगः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अद्य। सूरे। उदितऽइत्युत्ऽइते। अनागाः। मित्रः। अर्य्यमा॥ सुवाति। सविता। भगः॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 20
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    भावार्थ -
    (यत्) जब (मित्रः) सबका स्नेही, मित्र के समान (अर्यामा ) स्वामी रूप से अभिमत, न्यायकारी, ( सविता ) सबका प्रेरक, सूर्य के समान तेजस्वी, (भगः) सर्वैश्वर्यवान् (सुवाति) राज्य करता है तब (सूरे, उदिते इव) सूर्य उग आने पर जैसे कोई पुरुष अपराध, चोरी आदि नहीं करता, कहीं अन्धकार नहीं रहता, समस्त प्रजागण उसी प्रकार ( अद्य ) आज ( सूरे अदिते ) तेजस्वी सूर्य के समान राजा के उदय होने पर ( अनागाः) पाप से दूर रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः । सविता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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