यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 59
ऋषिः - कुशिक ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
6
वि॒दद्यदी॑ स॒रमा॑ रु॒ग्णमद्रे॒र्महि॒ पाथः॑ पू॒र्व्यꣳ स॒ध्र्यक्कः।अग्रं॑ नयत्सु॒पद्यक्ष॑राणा॒मच्छा॒ रवं॑ प्रथ॒मा जा॑न॒ती गा॑त्॥५९॥
स्वर सहित पद पाठवि॒दत्। यदि॑। स॒रमा॑। रु॒ग्णम्। अद्रेः॑। महि॑। पाथः॑। पूर्व्यम्। स॒ध्र्य॒क्। क॒रिति॑ कः ॥ अग्र॑म्। न॒य॒त्। सु॒पदीति॑ सु॒ऽपदी॑। अक्ष॑राणाम्। अच्छ॑। रव॑म्। प्र॒थ॒मा। जा॒न॒ती। गा॒त् ॥५९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यँ सर्ध्यक्कः । अग्रन्नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवम्प्रथमा जानती गात् ॥
स्वर रहित पद पाठ
विदत्। यदि। सरमा। रुग्णम्। अद्रेः। महि। पाथः। पूर्व्यम्। सध्र्यक्। करिति कः॥ अग्रम्। नयत्। सुपदीति सुऽपदी। अक्षराणाम्। अच्छ। रवम्। प्रथमा। जानती। गात्॥५९॥
विषय - वायु, इन्द्र, अश्वी आदि के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
सेना पक्ष में — (यदि) यदि (सरमा) वीर विजयी लोगों को एकत्र रमाने अर्थात् युद्ध क्रीड़ा करने वाली सेना (अद्रेः) मेघ के समान प्रजा पर सुखों और शत्रुओं पर बाणों के वर्षण करने वाले एवं शत्रुओं द्वारा न दीर्ण होने वाले वज्र, अर्थात् शस्त्रबल को ( रुग्णम् ) टूटा हुआ ( विदत् ) जाने तो वह (महि) बड़े भारी ( पूर्वम् ) पूर्व सञ्चित (पाथः) अपने पालनकारी सामर्थ्य को ( सध्यक्) एक ही स्थान पर एकत्र (कः) करे । वह (सुपदी) उत्तम रीति से पग चलाने वाली ( अक्षराणाम् ) कभी नाश न होने वाले पुरुषों के ( अग्रम् ) अग्र, अर्थात् मुख्य भाग को ( नयत् ) आगे ले जावे वह (प्रथमा) स्वयं सबसे प्रथम होकर (रवं) उत्तम आदेश को (जानती) भली प्रकार जानती हुई (अच्छगात् ) भली प्रकार आगे बढ़े । उत्तम सेना जब अपने बल को भग्न हुआ जाने तो वह अपने उत्तम बल को एकत्र कर ले और उत्तम दृढ़ पुरुषों को आगे बढ़ावे और स्वयं सेनापति के आदेशों को भली प्रकार जानते हुए आगे बढ़े । (२) गृहस्थ पक्ष में — (यदि) जब (सरमा) साथ रमण करने वाली स्त्री ( रुग्णम् विदत् ) दुःखों के भंग करने वाले पति को प्राप्त करे तब ( ( सध्यक) साथ रहने वाला, सहचारी पति ( पूर्व्यम् ) पूर्व से ही प्राप्त (अद्रेः) मेघ से उत्पन्न होने वाले (महि पाथः कः) बहुत अन्न, धन अथवा मेघ के समान ज्ञानप्रद आचार्य के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करे । वह स्त्री जो (सुपदी) उत्तम चरण वाली, (प्रथमा) प्रथम (अक्षराणां रवं जानती) अक्षर अर्थात् अविनाशी वेदवचनों के उपदेश को (जानती) जानती हुई ( अग्रं नयत् ) आगे २ स्वयं होकर अपने पीछे पति को लेती हुई (अन्वगात् ) पति को प्राप्त हो । अर्थात् स्त्री प्राप्त करने के पूर्व पुरुष धन संग्रह
करे अथवा ब्रह्मचर्य पालन करे, वह स्त्री भी ज्ञान प्राप्त करे । स्वयं ज्ञानवती होकर आगे स्वयं प्रदक्षिणा कर पति को प्राप्त करे । (३) वाणी के पक्ष में - (यदि ) यदि (सरमा) जब समान रूप से विद्वानों को आनन्दिता करने वाली, स्त्री के समान सुखदायिनी वेदमयी वाणी, (अद्रेः) न विदीर्णः होने वाले अज्ञान के ( रुग्णम् ) विनाशक उपाय को ( विदत् ) ज्ञान करती है । तब ( सध्यक्) उसके सहयोग से ज्ञान प्राप्त करने वाला पुरुष (पूर्व्यम् ) पूर्व से चले आये (माह पाथः) बड़े भारी ज्ञान को (कः) प्राप्त करता है । और (सुपदी) उत्तम ज्ञान कराने वाली (प्रथमा) सबसे प्रथम विद्यमान वेद वाणी (अक्षराणाम् ) अक्षर, अविनाशी सत्य सिद्धान्त तत्वों के (रवं जानती) उपदेश को जानती हुई (गात) प्रतीत होती है ( भग्रं नयत् ) हमें आगे, सर्वश्रेष्ठ, सबसे पूर्व विद्यमान परमेश्वर तक पहुँचाती है । (४) स्त्री के पक्ष में- (याद) जब (सरमा) पति के साथ रमण करने हारी प्रियतमा स्त्री (प्रथमा सुपदी) सर्व प्रथम, सुविख्यात उत्तम ज्ञान और आचरण वाली और (अक्षराणां रथं जानती) अक्षरों के यथार्थ उच्चारण, ध्वनि आदि को जानने हारी होकर ( रुग्णम् ) दुःखी पीड़ित जन को ( विदत् ) जाने, (सभ्यक) सदा साथ रह कर (पूर्व्यम् ) पूर्व प्राह किये हुए (अद्रेः महि पाथः) मेघ से प्राप्त सेचन से महान् प्रभूत अन्न को पृथ्वी के समान, वीर्य सेचक पति से उत्तम वंश पालक सन्तान उत्पन्न करे । इसीलिये वह स्त्री (पतिम् अच्छ गात् ) उत्तम पति को प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुशिक ऋषिः । इन्द्रो देवता । भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥
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