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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 64
    ऋषिः - गौरीवितिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    जनि॑ष्ठाऽउ॒ग्रः सह॑से तु॒राय॑ म॒न्द्रऽओजि॑ष्ठो बहु॒लाभि॑मानः।अव॑र्द्ध॒न्निन्द्रं॑ म॒रुत॑श्चि॒दत्र॑ मा॒ता यद्वी॒रं द॒धन॒द्धनि॑ष्ठा॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनि॑ष्ठाः। उ॒ग्रः। सह॑से। तु॒राय॑। म॒न्द्रः। ओजि॑ष्ठः। ब॒हु॒लाभि॑मान॒ इति॑ ब॒हु॒लऽअ॑भिमानः ॥ अव॑र्द्धन्। इन्द्र॑म्। म॒रुतः॑। चि॒त्। अत्र॑। मा॒ता। यत्। वी॒रम्। द॒धन॑त्। धनि॑ष्ठा ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनिष्ठाऽउग्रः सहसे तुराय मन्द्रऽओजिष्ठो बहुलाभिमानः । अवर्धन्निन्द्रम्मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरन्दधनद्धनिष्ठा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जनिष्ठाः। उग्रः। सहसे। तुराय। मन्द्रः। ओजिष्ठः। बहुलाभिमान इति बहुलऽअभिमानः॥ अवर्द्धन्। इन्द्रम्। मरुतः। चित्। अत्र। माता। यत्। वीरम्। दधनत्। धनिष्ठा॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 64
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! तू (मन्द्रः) समस्त प्रजा को हर्षित करने हारा, (भजिष्ठः) सबसे अधिक पराक्रमी (बहुलाभिमानी ) बहुत अधिक आत्माभिमान से युक्त, मनस्वी पुरुष ही (तुराय ) अपने शीघ्रकारी गुण, चुस्ती, भालस्यरहितता, कार्यदक्षता, शत्रुनाशक (सहसे) और शत्रु पराजय करने वाले बल के कारण ही (उग्रः) उग्र, प्रचण्ड, शत्रुओं के लिये भयंकर ( जनिष्टाः ) हो । ( मरुतः ) वायुओं के समान प्रचण्ड, शत्रुरूप वृक्षों को मूल फेंकने वाले शूरवीर उस ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक पुरुष को सूर्य को वायुओं के समान ( अवर्धन् ) बढ़ावें और (अत्र) ऐसे वीरता और राज्यपालन के कार्य के लिये ही (यत्) जब ( वीरम् ) वीर पुत्र को ( दधत् ) धारण करती हूँ, तभी वह (धनिष्ठा ) धन्य, उत्तम गर्भ धारक, सौभाग्यवती है । अथवा, (माता) पृथिवी जब ऐसे वीर को धारण करती है तो वह भी (धनिष्ठा) ऐश्वर्यवती, धन्य, वसुन्धरा, है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गौरिवीतिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् धैवतः ॥

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