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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 32
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒णयन्तं॒ जनाँ॒२ऽअनु॑।त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। पा॒व॒क॒। चक्ष॑सा। भु॒र॒ण्यन्त॑म्। जना॑न्। अनु॑ ॥ त्वम्। व॒रु॒॒ण॒। पश्य॑सि ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तञ्जनाँऽअनु । त्वँवरुण पश्यसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। पावक। चक्षसा। भुरण्यन्तम्। जनान्। अनु॥ त्वम्। वरुण। पश्यसि॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 32
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    भावार्थ -
    हे (वरुण) पापों के निवारक ! सर्वश्रेष्ठ, परमेश्वर ! राजन् ! हे (पावक) सूर्य और अग्नि के समान पवित्र कारक, जनों को दण्ड आदि से निष्पापकारक ! (येन) जिस (चक्षसा ) दर्शन या प्रकाश से (भुरण्यताम् ) सबके पालक पुरुष को (पश्यति) देखता है उसी से ( त्वम् ) तू अन्य मनुष्यों को भी ( अनु पश्यसि ) देख, उनको ज्ञान दे और मार्ग दिखा । राजा छोटे बड़े सबको एक समान देखे, एक समान शासन करे समान रूप से शिक्षित करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रस्कण्वः । सूर्यः । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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