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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 40
    ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिक् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    बट् सू॑र्य्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ२ऽअ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ२ऽअ॑सि।म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्य्यः पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम्॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बट्। सू॒र्य्य॒। श्रव॑सा। म॒हान्। अ॒सि॒। स॒त्रा। दे॒व। म॒हान्। अ॒सि॒ ॥ म॒ह्ना। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र्य्यः᳖। पु॒रोहि॑त॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑तः। विभ्विति॑ विऽभु। ज्योतिः॑। अदा॑भ्यम् ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बट्सूर्य श्रवसा महाँऽअसि सत्रा देव महाँऽअसि । मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बट्। सूर्य्य। श्रवसा। महान्। असि। सत्रा। देव। महान्। असि॥ मह्ना। देवानाम्। असुर्य्यः। पुरोहित इति पुरःऽहितः। विभ्विति विऽभु। ज्योतिः। अदाभ्यम्॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 40
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    भावार्थ -
    हे (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्विन्! सर्वप्रेरक प्रभो ! राजन् ! (श्रवसा) श्रवण करने योग्य, ऐश्वयं ज्ञान और यश तू से (बट्) सचमुच ( महान् असि ) महान् है । हे देव, सबके प्रकाशक हे सर्वत्र दानशील कान्तिमय ! तू ( सत्रा ) सत्य ही, वा सत्य के द्वारा ( महान् असि ) महान् है । (महा) अपने महान् सामर्थ्य से ( देवानाम् ) समस्त दानशील पुरुषों या पृथिव्यादि लोकों से बीच, सूर्य के समान (असुर्य :) प्राणियों का हितकारी है तु (पुरोहितः) दीपक के समान विवेक से मार्ग चलने के लिये (पुर: हितः) आगे के मुख्य अग्रणी पद पर स्थापित किया जाता है | तू (विभु) विविध सामर्थ्यौ से युक्त ( अदाभ्यम् ) अविनाशी (ज्योति:) ज्योति, आनन्दमय, तेजस्वरूप है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जमदग्निः । सूर्यः । भुरिग् बृहती । मध्यमः ॥

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