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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः छन्दः - स्वराट आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    धा॒ता रा॒तिः स॑वि॒तेदं जु॑षन्तां प्र॒जाप॑तिर्निधि॒पा दे॒वोऽअ॒ग्निः। त्वष्टा॒ विष्णुः॑ प्र॒जया॑ सꣳररा॒णा यज॑मानाय॒ द्रवि॑णं दधात॒ स्वाहा॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धा॒ता। रा॒तिः। स॒वि॒ता। इदम्। जु॒ष॒न्ता॒म्। प्र॒जा॑पति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। नि॒धि॒पा इति॑ निधि॒ऽपाः। दे॒वः। अ॒ग्निः। त्वष्टा॑। विष्णुः॑। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽर॒रा॒णाः। यज॑मानाय। द्रवि॑णम्। द॒धा॒त॒। स्वाहा॑ ॥१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धाता रातिः सवितेदञ्जुषन्ताम्प्रजापतिर्निधिपा देवो अग्निः । त्वष्टा विष्णुः प्रजया सँरराणा यजमानाय द्रविणन्दधात स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    धाता। रातिः। सविता। इदम्। जुषन्ताम्। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। निधिपा इति निधिऽपाः। देवः। अग्निः। त्वष्टा। विष्णुः। प्रजयेति प्रऽजया। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। यजमानाय। द्रविणम्। दधात। स्वाहा॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 17
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    भावार्थ -

    ( धाता रातिः सविता प्रजापतिः निधिपा अग्निः देवः त्वष्टा विष्णुः ) धाता, राति, सविता, प्रजापति, अग्नि, त्वष्टा और विष्णु ये सब देवगण अधिकारी वर्ग ( इदम् जुषन्ताम् ) इस परस्पर के सहयोग से बने राष्ट्र को प्रेम से स्वीकार करें और ( प्रजया ) अपने संतान के समान प्रजा के साथ ( सं रराणाः) अच्छी प्रकार आनन्द प्रसन्न रहते और जीवन को सुखी करते हुए, ( यजमानाय ) अपने को धारण पोषण देने वाले राजा को ( दविणाम् ) धनैश्वर्य ( स्वाहा ) उत्तम धर्मयुक्त रीति से ( दधात ) प्रदान करें, उसे पुष्ट करें । श० ४ । ४ । ९॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    लिंगोक्ता धात्रादयो देवताः । स्वराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ 

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