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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सु॒गा वो॑ देवाः॒ सद॑नाऽअकर्म॒ यऽआ॑ज॒ग्मेदꣳ सव॑नं जुषा॒णाः। भ॑रमाणा॒ वह॑माना ह॒वीष्य॒स्मे ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि॒ स्वाहा॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒गेति॑ सु॒ऽगा। वः॒। दे॒वाः॒। सद॑ना। अ॒क॒र्म॒। ये। आ॒ज॒ग्मेत्या॑ऽज॒ग्म। इ॒दम्। सव॑नम्। जु॒षा॒णाः। भर॑माणाः। वह॑मानाः। ह॒वीꣳषि॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। ध॒त्त॒। व॒स॒वः॒। वसू॑नि। स्वाहा॑ ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुगा वो देवाः सदना अकर्म य आजग्मेदँ सवनञ्जुषाणाः । भरमाणा वहमाना हवीँष्यस्मे धत्त वसवो वसूनि स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुगेति सुऽगा। वः। देवाः। सदना। अकर्म। ये। आजग्मेत्याऽजग्म। इदम्। सवनम्। जुषाणाः। भरमाणाः। वहमानाः। हवीꣳषि। अस्मेऽइत्यस्मे। धत्त। वसवः। वसूनि। स्वाहा॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 18
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    भावार्थ -

    हे ( देवाः ) देव, विद्वानों और दानशील वैश्य पुरुषो ! या राजपदाधिकारियो ! ( ये ) जो आप लोग ( इदं ) इस ( सवनं ) राष्ट्रमय यज्ञ की सेवा करते हुए और ( हवींषि ) नाना अन्न आदि उपादेय पदार्थों को ( भरमाणाः ) भोग करते हुए और ( वहमाना: ) उनको प्राप्त करते हुए अथवा ( भरमाणाः ) यहां से लेजाते हुए और ( वहमाना: ) यहां को लाते हुए ( आजग्मुः ) आते हैं ( वः ) उन आप लोगों के लिये ( सुगाः ) सुखपूर्वक चलने योग्य मार्ग और ( सदना ) उत्तम आश्रय स्थान, व्यापार के निमित्त दुकान या बाज़ार आदि हम ( अकर्म ) बनावें । हे ( वसव: ) यहां के निवासी वसुजनो प्रजाजनो ! आप लोग ( अस्मे ) हमारे राष्ट्र के लिये ( स्वाहा ) उत्तम रूप से धर्मानुकूल प्राप्त करने और दान देने योग्य ( वसूनि धत्त ) ऐश्वयों को धारण करो, कराओ ॥ शत० ४ । ४। ४। १० ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    विश्वेदेवा देवताः ।आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ 

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