Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - स्वराट आर्षी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    2

    देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त। म॒न॑सस्पतऽइ॒मं दे॑व य॒ज्ञꣳ स्वाहा॒ वाते॑ धाः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवाः॑। गा॒तु॒वि॒द॒ इति॑ गातुऽविदः। गा॒तुम्। वि॒त्त्वा। गा॒तुम्। इ॒त॒। मन॑सः। प॒ते॒। इ॒मम्। दे॒व॒। य॒ज्ञम्। स्वाहा॑। वाते॑। धाः॒ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा गातुविदो गातुँ वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमन्देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवाः। गातुविद इति गातुऽविदः। गातुम्। वित्त्वा। गातुम्। इत। मनसः। पते। इमम्। देव। यज्ञम्। स्वाहा। वाते। धाः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    भावार्थ -

    हे ( देव ) सब पदार्थों के देने और उनका प्रकाशन करने हारे परमेश्वर ! ( येन )जिस ज्ञान से ( त्वं ) तू ( वेद ) समस्त संसार के पदार्थों और विज्ञानों को जानता और सब को जनाता है. इसी से तू ( वेद: असि ) स्वयं भी 'वेद' स्वरूप है । उसी कारण उसी वेदमय ज्ञानरूप से तू ( देवेभ्यः ) ज्ञानप्रकाशक विद्वानों के लिये भी स्वयं ( वेद: ) वेद या ज्ञान रूप से ( अभवः ) प्रकट होता है । (तेन ) उसी ज्ञानरूप में हे परमेश्वर ! आप ( मह्यम् )मेरे लिये ( वेद: ) ' वेदमय ज्ञानमय रूप से ( भूयाः ) प्रकट हों  (देवाः ) देव ज्ञान के प्रकाश करने हारे पुरुष पदार्थों के यथार्थ गुणों को जानने वाले एवं गातु अर्थात् गमन करनेयोग्य मार्ग को जानने वाले होते हैं ! हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( गातुम् ) गातु, सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप या उत्तम भाग का ज्ञान करने वाले, मार्गोपदेशक वेद का (वित्त्वा) ज्ञान करके ( गातुम् ) उपदेश करने योग्य यज्ञ या संसार की सत् व्यवस्थाओं को ( इत ) प्राप्त होवो, उसको अपने वश करो । हे ( मनसः पते ) समस्त संकल्प विकल्प करने वाले समष्टिरूप मनके परिपालक प्रभो ! हे ( देव ) प्रकाशक ! ( इमस् ) इस संसार रूप यज्ञ को ( वाले ) वायु रूप महान् प्राण के आधार पर आप ( धाः ) धारण कर रह हो । ( सु आहा) यही समस्त संसार को वायु रूप सूत्रात्मा तुझ में उत्तम आहुति अर्थात् धारणाव्यवस्था है ॥ 
    अध्यात्म में - ज्ञानकर्ता, सब विषयों के ज्ञान का उपलब्धिकर्ता आत्मा 'वेद' है। देव इन्द्रियों को भी वही ज्ञान करता है । गातु अर्थात् =ज्ञान या शरीर । गात्र=मनसस्पति, आत्मा । वात=प्राण । यज्ञ = मानस यज्ञ या शरीर । योजना स्पष्ट है ॥ शत० १ । ९ । २ । २३-२८ ॥शत० ४ । ४ । ४ । १३ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः।
    प्रकृतो, मनसस्पतिश्च ऋषी । वेदः प्रजापतिर्देवता । भुरिग् ब्राह्मी बृहती छन्दः । मध्यमः॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top