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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः
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    होता॑ यक्ष॒दोजो॒ न वी॒र्यꣳ सहो॒ द्वार॒ऽ इन्द्र॑मवर्द्धयन्।सु॒प्रा॒य॒णाऽ अ॒स्मिन् य॒ज्ञे वि श्र॑यन्ता॒मृता॒वृधो॒ द्वार॒ इन्द्रा॑य मी॒ढुषे॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। ओजः॑। न। वी॒र्य᳖म्। सहः॑। द्वारः॑। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒न्। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। द्वारः॑। इन्द्रा॑य। मी॒ढुषे॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदोजो न वीर्यँ सहो द्वारऽइन्द्रमवर्धयन् । सुप्रायणाऽअस्मिन्यज्ञे विश्रयन्तामृतावृधो द्वारऽइन्द्राय मीढुषे व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। ओजः। न। वीर्यम्। सहः। द्वारः। इन्द्रम्। अवर्द्धयन्। सुप्रायणाः। सुप्रायना इति सुऽप्रायनाः। अस्मिन्। यज्ञे। वि। श्रयन्ताम्। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। द्वारः। इन्द्राय। मीढुषे। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 5
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (होतः) यज्ञ करणार्‍या मनुष्या वा हे यजमान (सुप्रायणाः) ज्यात सुंदर व भरपूर जागा आहे, अशा (द्वारः) द्वाराशी (वा द्वाराच्या आत) लोक (ओजः) जलवेता (न) प्रमाणे (वीर्यम्) शक्ती आणि (सहः) सहनशक्ती याद्वारे (इन्द्रम्) ,ऐश्‍वर्य (अषर्द्धयन्) वाढवतात (आपल्या घरात भरपूर संपत्ती संग्रहीत करतात) त्या (ऋतावृधः) सत्याची वृद्धी करणार्‍या (द्वारः) विद्या आणि विनय रूप द्वाराचे (मीढुषे) स्नेही व वीर्यवान (इन्द्राय) ऐश्‍वर्ययुक्त राजासाठी (उघडे करणार्‍या) (अस्मिन्) या (यज्ञे) संगती करण्यास योग्य अशा संसारामधे विद्वान लोकांनी (वि, श्रमन्ताम्) विशेषत्वाने सेवन करावे. (राजाने राज्यात सतय्, विद्या, विनय, स्नेह यांची वृद्क्ष करावी. त्यासाठी विद्वज्जनांनी त्याला सहाय्य द्यावे) (आजस्य) ज्ञातव्य अशा राज्यविषयक नियम (तयार करण्यासाठी विद्वज्जन) राजाला (न्यन्तु) प्राप्त व्हावेत. ज्याप्रमाणे एक (होता) ग्रहीता मनुष्य (यक्षत्) यज्ञ करील वा करतो, तद्वत हेह होताः यजमान, तूही (यज) यज्ञ कर. ॥5॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. जे लोक या जगात विद्या आणि धर्म रूप द्वारें उघडी ठेवून पदार्थविद्येचे यथोचित सेवन करतात, त्याद्वारे ऐश्‍वर्य वाढवितात, ते अतुलनीय सुख उपभोगतात ॥5॥

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