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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 25
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः।म॒हाँ२ऽअ॑भि॒ष्टिरोज॑सा॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑। आ। इ॒हि॒। म॑त्सि। अन्ध॑सः। विश्वे॑भिः। सो॒म॒पर्व॑भि॒रिति॑ सोम॒पर्व॑ऽभिः ॥ म॒हान्। अ॒भि॒ष्टिः। ओज॑सा ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महाँऽअभिष्टिरोजसा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। इहि। मत्सि। अन्धसः। विश्वेभिः। सोमपर्वभिरिति सोमपर्वऽभिः॥ महान्। अभिष्टिः। ओजसा॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 25
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (इन्द्र) ऐश्‍वर्यदाता विद्वान, आपण (ओजसा) पराक्रमशील आणि (महान्) मोठा (अभिष्टिः) सर्वप्रकारे सत्कार करण्यास पात्र आहात आणि (विश्‍वेभिः) सर्व (सोमपर्वभिः) सोम आदी औषधी आणि (अन्धसः) अन्न आदीद्वारे आपला सत्कार सन्मान केल्यास आपण (मत्सि) तृप्त व संतुष्ट होणारे आहात. म्हणून (आम्ही भोजन, औषधी रस आदीद्वारे आपला सत्कार करतो) आपण आम्हा (गृहस्थजनांस) (आ, इहि) प्राप्त व्हा (आमच्या घरी या व आमच्यातर्फे केल्या जाणार्‍या सत्काराचा स्वीकार करा) ॥25॥

    भावार्थ - भावार्थ - हे मनुष्यांनो, अन्न आदीने मनुष्य आदी प्राण्यांचे शरीर पुष्ट होतात, त्यामुळे अन्न, औषधी आदीची वृद्धी, त्यांचे सेवन, आहार-विहार आदी विषयी यथोचित सथार्थ ज्ञान प्राप्त करा ॥25॥

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