अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्ष॑ ऋष॒त्यव॑र्तिं हन्ति॒ चक्षु॑षा। शृ॒णोति॑ भ॒द्रं कर्णा॑भ्यां॒ गवां॒ यः पति॑र॒घ्न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठशृङ्गा॑भ्याम् । रक्ष॑: । ऋ॒ष॒ति॒ । अव॑र्तिम् । ह॒न्ति॒ । चक्षु॑षा । शृ॒णोति॑ । भ॒द्रम् । कर्णा॑भ्याम् । गवा॑म् । य: । पति॑: । अ॒घ्न्य: ॥४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
शृङ्गाभ्यां रक्ष ऋषत्यवर्तिं हन्ति चक्षुषा। शृणोति भद्रं कर्णाभ्यां गवां यः पतिरघ्न्यः ॥
स्वर रहित पद पाठशृङ्गाभ्याम् । रक्ष: । ऋषति । अवर्तिम् । हन्ति । चक्षुषा । शृणोति । भद्रम् । कर्णाभ्याम् । गवाम् । य: । पति: । अघ्न्य: ॥४.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(शृङ्गाभ्याम्) दो सीगों द्वारा (रक्षः) राक्षस को (ऋषति) हटाता हैं, (चक्षुषा)१ चक्षु द्वारा (अवर्तिम्) अनाजीविका का (हन्ति) हनन करता है, (कर्णाभ्याम्) दो कानों द्वारा (भद्रम्) भद्र प्रार्थनावचनों को (शृणोति) सुनता है (यः) जोकि (अघ्न्यः) अहन्तव्य, अत्याज्य अर्थात् प्रापणीय परमेश्वर (गवां पतिः) गौओं का पति है।
टिप्पणी -
[मन्त्र १७ से २४ तक मुख्यरूप में "ऋषभ" द्वारा परमेश्वर का, और गौणरूप में बलीवर्द का वर्णन है। अथर्व ९।७।१ में “प्रजापतिश्च परमेष्ठी च शृङ्गे" कहा है। प्रजापति है उत्पन्न पदार्थों का स्वामी परमेश्वर, और परमेष्ठी है परमस्थान जीवात्मा में स्थित परमेश्वर। इन दो स्वरूपों द्वारा तामसिक-राक्षसों काम, क्रोध, लोभ आदि को हटाता है। वह निज कृपा दृष्टि (चक्षुषा) द्वारा अनाजीविका का हनन कर देता है, और चक्षुरूपी सूर्य द्वारा वर्षा आदि करा कर, अन्नोत्पादन करके अनाजीविका का हनन करता है। परमेश्वर के प्राकृतिक कर्ण तो नहीं है परन्तु “पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः" (उपनिषद्) के अनुसार कर्णों के विना सुनने से कर्णों का आरोप किया है। वह भद्र-प्रार्थनाओं को सुनकर प्रार्थी की अभिलाषा को पूर्ण करता है, वह अभद्र प्रार्थनाओं को नहीं सुनता। वह "गवाम्" वेदवाणियों का पति है, "गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। वह "अघ्न्यः" है, न हनन करता और न उसका हनन हो सकता है। "यो न हन्यते न हन्तीति वा स अघ्न्य (उणा० ४।११३, दयानन्द]। [१. चक्षोः सूर्योऽअजायत (यजु० ३१।१२)। बलीवर्द निज चक्षु द्वारा अनाजीविका का हनन कैसे कर सकता है। उस की कृपा दृष्टि से कृषि द्वारा अनाजीविका का हनन सम्भव है– यह क्लिष्ट कल्पना है।]