अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
ए॒तं वो॒ युवा॑नं॒ प्रति॑ दध्मो॒ अत्र॒ तेन॒ क्रीड॑न्तीश्चरत॒ वशाँ॒ अनु॑। मा नो॑ हासिष्ट ज॒नुषा॑ सुभागा रा॒यश्च॒ पोषै॑र॒भि नः॑ सचध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । व॒: । युवा॑नम् । प्रति॑ । द॒ध्म॒: । अत्र॑ । तेन॑ । क्रीड॑न्ती: । च॒र॒त॒ । वशा॑न् । अनु॑ । मा । न॒: । हा॒सि॒ष्ट॒ । ज॒नुषा॑ । सु॒ऽभा॒गा॒: । रा॒य: । च॒ । पोषै॑: । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् ॥४.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं वो युवानं प्रति दध्मो अत्र तेन क्रीडन्तीश्चरत वशाँ अनु। मा नो हासिष्ट जनुषा सुभागा रायश्च पोषैरभि नः सचध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । व: । युवानम् । प्रति । दध्म: । अत्र । तेन । क्रीडन्ती: । चरत । वशान् । अनु । मा । न: । हासिष्ट । जनुषा । सुऽभागा: । राय: । च । पोषै: । अभि । न: । सचध्वम् ॥४.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(एतम्, युवानम्) इस युवा को, (वः प्रति) तुम्हारे प्रति (अत्र) इस गोष्ठ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं, (क्रीडन्तीः) हे प्रजाओ ! क्रीडा स्वभाव वाली होकर, (वशान् अनु) इच्छाओं के अनुसार (तेन) उस युवा के साथ (चरत) तुम विचरो। (जनुषा) नव जीवन के कारण (सुभागाः) सौभाग्य सम्पन्न हुई तुम (नः) हमारा अर्थात् हम योगियों का (हासिष्ट मा) परित्याग न करो, (च) अपितु (रायः पोषैः) अध्यात्म सम्पत्तियों की पुष्टियों से सम्पन्न हुई तुम (नः अभि सचध्वम्) हमारी ओर आकर हमारे सत्संगों को प्राप्त करती रहो।
टिप्पणी -
[मन्त्र २३ के अनुसार सर्वव्यापक परमेश्वर का सामीप्य उपासक अनुभव नहीं कर रहे हैं परमयोगी उनके प्रति कहते हैं कि इस सदा युवा, अतः सदा शक्ति तथा सामर्थ्य वाले परमेश्वर को तुम्हारे गोष्ठों अर्थात् मनों या शरीरों (मन्त्र १७) में हम स्थापित करते हैं। सदा क्रीडा स्वभाव वाली होकर जब चाहो, उस युवा के साथ विचरो। परन्तु इस नए अध्यात्म जीवनों तथा अध्यात्म सम्पत्तियों को प्राप्त कर, हम गुरुओं के साथ अपना सम्बन्ध भी बनाए रखो। बलीवर्द पक्ष में युवा बैल तथा गौओं में परस्पर क्रीड़ा का वर्णन है।]