अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
इन्द्र॒स्यौजो॒ वरु॑णस्य बा॒हू अ॒श्विनो॒रंसौ॑ म॒रुता॑मि॒यं क॒कुत्। बृह॒स्पतिं॒ संभृ॑तमे॒तमा॑हु॒र्ये धीरा॑सः क॒वयो॒ ये म॑नी॒षिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । ओज॑: । वरु॑णस्य । बा॒हू इति॑ । अ॒श्विनो॑: । अंसौ॑ । म॒रुता॑म् । इ॒यम् । क॒कुत् । बृह॒स्पति॑म् । सम्ऽभृ॑तम् । ए॒तम् । आ॒हु॒: । ये । धीरा॑स: । क॒वय॑: । ये । म॒नी॒षिण॑: ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्यौजो वरुणस्य बाहू अश्विनोरंसौ मरुतामियं ककुत्। बृहस्पतिं संभृतमेतमाहुर्ये धीरासः कवयो ये मनीषिणः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । ओज: । वरुणस्य । बाहू इति । अश्विनो: । अंसौ । मरुताम् । इयम् । ककुत् । बृहस्पतिम् । सम्ऽभृतम् । एतम् । आहु: । ये । धीरास: । कवय: । ये । मनीषिण: ॥४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
परमेश्वर (इन्द्रस्य) विद्युत् का (ओजः) ओजस् रूप है, (वरुणस्य) अन्तरिक्ष का आवरण करने वाली वायु का (बाहू) यश-और-बल रूप है, (अश्विनोः अंसौ) पृथिवी का स्कन्ध रूप और द्यौः का स्कन्ध रूप है, (मरुताम्) मानसून वायुओं की (इयं ककुद्) यह जो ककुद् अर्थात् मेघ है, परमेश्वर तद्रूप है। इस प्रकार (ये) जो (धीरासः) मेधावी (कवयः) वेद काव्य के अभिज्ञ, तथा (ये) जो (मनीषिणः) मनीषी लोग हैं वे (एनम्) इस परमेश्वर को (संभृतम्) संहृत अर्थात् एकत्रित रूप (बृहस्पतिम्) महाशक्तियों-का-पति (आहुः) कहते हैं।
टिप्पणी -
[विद्युत् मध्यमस्थानी है, उसके साथ वरुण अर्थात् वायु भी मध्यमस्थानी है। बाहू=बाहुभ्यां यशोवलम् (वैदिक सन्ध्या-मन्त्र)। परमेश्वर पृथिवी और द्यौः को मानो निज कन्धों का सहारा दिये हुए है। मरुताम्= मानसून वायु (अथर्व० ४।२७।४, ५) मरुतों की ककुद् अर्थात् उच्चशिखिर है मेघ। परमेश्वर मानो तद्रूप हुआ वर्षा करता है। धीरासः= धीरः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)। बलीवर्द पक्ष में प्रसिद्ध अर्थ: "इसका ओज इन्द्र का है, दो बाहुएं अर्थात् अगली दो टांगें वरुण की हैं, दो कन्धे अश्वियों के है, ककुद [Hump] मरुतों की है। इस प्रकार दैविकरूप में इसे सम्भृत बृहस्पति कहते हैं। बलीवर्द, कृषि द्वारा तथा भारोद्वहन द्वारा, ओज रूप है। यह कथन राष्ट्रिय दृष्टि से हुआ है। अश्विनोः बाहु= माता-पिता के रूप में विभक्त प्रजाजनों के कामों में सहारा देने वाले दो बाहुओं के सदृश यह सहायक है। मरुताम्= कृषि द्वारा सुवर्ण आदि सम्पत्तियों की प्राप्ति के लिये यह दो-स्कन्धरूप है। यह भी राष्ट्रिय दृष्टि से कथन हुआ है। "मरुत् हिरण्यनाम" (निघं० १।२) तथा "मरुद्भ्यो१ वैश्यम्” (यजु० ३०।५), अर्थात् हिरण्यादि सम्पत्तियों की प्राप्ति के लिये तथा वैश्यों के लिये यह ककुद् है, उच्चशक्ति रूप है। बृहस्पतिः = बृहतः गोवंशस्य पतिः] [१. जिसने परमेश्वर का साक्षात् कर लिया, उस द्वारा दी गई एक ही ब्राह्माहुति, साक्षात् कराने के लिये पर्याप्त होती है।]