अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ब्रा॑ह्म॒णेभ्य॑ ऋष॒भं द॒त्त्वा वरी॑यः कृणुते॒ मनः॑। पुष्टिं॒ सो अ॒घ्न्यानां॒ स्वे गो॒ष्ठेऽव॑ पश्यते ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णेभ्य॑: । ऋ॒ष॒भम् । द॒त्त्वा । वरी॑य: । कृ॒णु॒ते॒ । मन॑: । पुष्टि॑म् । स: । अ॒घ्न्याना॑म् । स्वे । गो॒ऽस्थे । अव॑ । प॒श्य॒ते॒ ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणेभ्य ऋषभं दत्त्वा वरीयः कृणुते मनः। पुष्टिं सो अघ्न्यानां स्वे गोष्ठेऽव पश्यते ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणेभ्य: । ऋषभम् । दत्त्वा । वरीय: । कृणुते । मन: । पुष्टिम् । स: । अघ्न्यानाम् । स्वे । गोऽस्थे । अव । पश्यते ॥४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(ब्राह्मणेभ्यः) ब्रह्मोपासकों को (ऋषभम्) श्रेष्ठ परमेश्वर का (दत्त्वा) प्रदान करके दाता (मनः) निज मन को (वरीयः) श्रेष्ठ तथा उदार (कृणुते) करता है, (सः) और वह (स्वे) अपने (गोष्ठे) मन या शरीर में (अघ्न्यानाम्) वेदवाणियों की (पुष्टिम्) पुष्टि को (अवपश्यते) देखता है।
टिप्पणी -
[वरीया= श्रेष्ठ और विस्तृत [उदार] विना किसी प्रतिफल के मांगे, ब्रह्म दर्शन करा देने में, दाता निज मन की उदारता प्रकट करता है, और लोभ से रहित होने से मन को श्रेष्ठ बनाता है। गोष्ठे= गावः इन्द्रियाणि वेदवाचो वा तिष्ठन्ति यस्मिन्= मन या शरीर। इन्द्रियों को गौ भी कहते हैं, तभी इन्द्रिय-विषयों को गोचर कहते हैं। गोचर= जिन में इन्द्रियां विचरती हैं तथा "गौः पशुरिन्द्रियं सुखं किरणो वज्रं चन्द्रमा भूमिर्वाणी जलं वा" (उणा० २।६८, महर्षि दयानन्द)। "अघ्न्या पदनाम" (निघं० ५।५)। वेदवाणी अघ्न्या है, कभी इस का हनन नहीं होता, यह नित्या है। दाता के मन से वेदवाणियों की पुष्टि सदा होती रहती है। यथा “यस्मि न्नृच साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु" (यजु० ३४।५) अभिप्राय यह कि दाता-परमयोगी के मन में, परमेश्वर की स्तुति करने के लिये, वेदवाणी सदा जागृत रहती हैं, वह निशि-दिन परमेश्वर की स्तुति करता रहता है। इन मन्त्रों में बलीवर्द का वर्णन भी अभिप्रेत है, जोकि मन्त्र पाठ के समय अनायास प्रकट होता है। परन्तु मन्त्रों का मुख्य अभिप्राय परमेश्वर ही है।]