अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
गावः॑ सन्तु प्र॒जाः स॒न्त्वथो॑ अस्तु तनूब॒लम्। तत्सर्व॒मनु॑ मन्यन्तां दे॒वा ऋ॑षभदा॒यिने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठगाव॑: । स॒न्तु॒ । प्र॒ऽजा: । स॒न्तु॒ । अथो॒ इति॑ । अ॒स्तु॒ । त॒नू॒ऽब॒लम् । तत् । सर्व॑म् । अनु॑ । म॒न्य॒न्ता॒म् । दे॒वा: । ऋ॒ष॒भ॒ऽदा॒यि॑ने ॥४.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
गावः सन्तु प्रजाः सन्त्वथो अस्तु तनूबलम्। तत्सर्वमनु मन्यन्तां देवा ऋषभदायिने ॥
स्वर रहित पद पाठगाव: । सन्तु । प्रऽजा: । सन्तु । अथो इति । अस्तु । तनूऽबलम् । तत् । सर्वम् । अनु । मन्यन्ताम् । देवा: । ऋषभऽदायिने ॥४.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
भाषार्थ -
(गावः सन्तु) गौएं हों, (प्रजाः सन्तु) प्रजाएं हों, (अथो) और (तनूबलम्) शारीरिक बल (अस्तु) हो। (ऋषभदायिने) ऋषभ के दाता के लिये (तत् सर्वम्) उस सब का (देवाः) देवलोग (अनुमन्यन्ताम्) अनुमोदन करें, इसकी स्वीकृति दें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में परमयोगी का वर्णन है, जोकि ब्रह्मोपासक को ब्रह्म का दर्शन करा देता है। ऐसा योगी यदि गृहस्थी हो तो उसके गृहजीवन के लिये आवश्यक साधनों को उपस्थित करना, तथा यदि वह रुग्ण हो तो उसके स्वास्थ्य तथा शारीरिक बल के लिये औषधादि की व्यवस्था करना राज्याधिकारियों का कर्तव्य है, जोकि राज्याधिकारी देव हों, देव कोटि के व्यक्ति हों। किस स्थान में ऐसा कौन सा योगी रहता है इस की सूचना तो स्थानीय विशिष्ट जन ही दे सकते हैं। वे ही सहायतार्थ यथोचित प्रस्ताव राज्याधिकारियों के समीप उपस्थित कर सकते हैं। प्रस्ताव आने पर राज्याधिकारी उसका अनुमोदन करें, तत्पश्चात् राज्य की ओर से ऐसे परमयोगियों की सहायता की जानी चाहिये, यह उपदेश मन्त्र का है। दूसरी बात मन्त्र से यह प्रतीत होती है कि ऐसे योगी महात्मा भी गृहस्थ धारण कर, धर्मात्मा, सद्गुणी, तथा सदाचारी सन्तानें उत्पन्न कर, यदि राष्ट्र को दें, तो राष्ट्र की वास्तविक समुन्नति हो सकती है।