अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
उपे॒होप॑पर्चना॒स्मिन्गो॒ष्ठ उप॑ पृञ्च नः। उप॑ ऋष॒भस्य॒ यद्रेत॒ उपे॑न्द्र॒ तव॑ वी॒र्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । इ॒ह । उ॒प॒ऽप॒र्च॒न॒ । अ॒स्मिन् । गो॒ऽस्थे । उप॑ । पृ॒ञ्च॒ । न॒: । उप॑ । ऋ॒ष॒भस्य॑ । यत् । रेत॑: । उप॑ । इ॒न्द्र॒ । तव॑ । वी॒र्य᳡म् ॥४.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
उपेहोपपर्चनास्मिन्गोष्ठ उप पृञ्च नः। उप ऋषभस्य यद्रेत उपेन्द्र तव वीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । इह । उपऽपर्चन । अस्मिन् । गोऽस्थे । उप । पृञ्च । न: । उप । ऋषभस्य । यत् । रेत: । उप । इन्द्र । तव । वीर्यम् ॥४.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(इह उपवर्चन) इस संसार में समीपता से सम्पर्क वाले ! (नः अस्मिन् गोष्ठे) हमारे इस गोष्ठ में (उप पृञ्च) तू समीपता से सम्पर्क कर। (ऋषभस्य) तुझ श्रेष्ठ की (यद् रेतः) जो शक्ति है वह (उप) हमारे समीप हो जाय ! (इन्द्र) हे परमैश्वर्य वाले ! (तव वीर्यम्) तेरा सामर्थ्य (उप) हमारे समीप हो जाय।
टिप्पणी -
[उपपर्चन= उप (समीप) + पर्चन (पृची सम्पर्क, अदादिः) + ल्युट् (कर्तरि)। गोष्ठे= मन में या शरीर में (मन्त्र १७)। गावः= इन्द्रियाणि तिष्ठन्ति अस्मिन् इति गोष्ठः। परमेश्वर सर्वव्यापक होने से सबके समीप है। उपासकों की भावना यह है कि सर्वव्यापक होने पर भी हमारी उपासनाओं तथा जीवनों में उस की सत्ता अनुभूत नहीं हो रही। इस लिये वे प्रार्थना करते हैं कि तेरी शक्ति और तेरा सामर्थ्य हमें प्राप्त हो, ताकि तेरी सत्ता की समीपता हमें अनुभूत हो सके]।