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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः
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    स॒ह रय्या निव॑र्त्त॒स्वाग्ने॒ पिन्व॑स्व॒ धार॑या। वि॒श्वप्स्न्या॑ वि॒श्वत॒स्परि॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह। र॒य्या। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। अग्ने॑। पिन्वस्व॒। धार॑या। वि॒श्वप्स्न्येति॑ वि॒श्वऽप्स्न्या॑। वि॒श्वतः॑। परि॑। ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सह रय्या निवर्तस्वाग्ने पिन्वस्व धारया । विश्वप्स्न्या विश्वतस्परि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सह। रय्या। नि। वर्त्तस्व। अग्ने। पिन्वस्व। धारया। विश्वप्स्न्येति विश्वऽप्स्न्या। विश्वतः। परि।॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -

    १. हे ( अग्ने ) = प्रकाशमय प्रभो! ( रय्या सह ) = दान देने योग्य धन के साथ ( निवर्त्तस्व ) = हमें निश्चय से प्राप्त होओ। २. ( विश्वतस्परि ) = सर्वतः सबकी रक्षा करनेवाली तथा विश्वप्स्न्या [ विश्वैः प्सायते भक्ष्यते विश्वप्स्नी ] = सर्वजनों से उपभोग्य ( धारया ) = धन की धारा से अथवा धारण करनेवाले धन से ( पिन्वस्व ) = सिक्त कीजिए। निरन्तर धनदान से हमें फिर-फिर बढ़ाइए, जिससे हम सभी का धारण करनेवाले बन सकें।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम उस धन को प्राप्त करें जिसका हम दान देनेवाले बनें और जिससे हम सभी का धारण करनेवाले बनें। सबके धारण की यह भावना ही हमें ‘वत्सप्री’ बनाएगी। प्रभु हमारे धारणात्मक कर्म से ही प्रीणित होंगे।

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