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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 103
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अ॒भ्याव॑र्त्तस्व पृथिवि य॒ज्ञेन॒ पय॑सा स॒ह। व॒पां ते॑ऽअ॒ग्निरि॑षि॒तोऽअ॑रोहत्॥१०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। आ। व॒र्त्त॒स्व॒। पृ॒थि॒वि॒। य॒ज्ञेन॑। पय॑सा। स॒ह। व॒पाम्। ते॒। अ॒ग्निः। इ॒षि॒तः। अ॒रो॒ह॒त् ॥१०३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्या वर्तस्व पृथिवि यज्ञेन पयसा सह । वपाम्तेऽअग्निरिषितो अरोहत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। आ। वर्त्तस्व। पृथिवि। यज्ञेन। पयसा। सह। वपाम्। ते। अग्निः। इषितः। अरोहत्॥१०३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 103
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    पदार्थ -
    १. मन्त्र संख्या ७९ में यज्ञों से ओषधियों के उत्पादन का वर्णन हुआ है। पिछले मन्त्र में इसीलिए यज्ञिय वृत्तिका उपदेश हुआ है कि इसी से तुम प्रभु की सच्ची परिचर्या करोगे। 'हविषा विधेम ' - हवि के द्वारा ही उपासना होती है। यहाँ कहते हैं कि हे (पृथिवि) = भूमे ! तू (यज्ञेन) = यज्ञ से (अभ्यावर्त्तस्व) = हमारे सम्मुख चारों ओर वर्त्तमान हो, अर्थात् हम तुझपर चारों ओर यज्ञों को होता हुआ देखें। २ और हे पृथिवि ! तू इन यज्ञों के द्वारा सदा (पयसा सह) = आप्यायन करनेवाले, उत्पादक शक्ति को बढ़ानेवाले मेघजलों के साथ वर्त्तमान हो । 'अग्निहोत्रं स्वयं वर्षम् ' = अग्निहोत्र से वर्षा तो होगी ही। वह 'पयो-दों' [जल-द] से प्राप्त जल भूमि का सचमुच आप्यायन-वर्धन करनेवाला होगा। ३. इस प्रकार (इषितः अग्निः) = यज्ञकुण्डों में प्रेरित हुआ हुआ यह अग्नि हे भूमे ! (ते) = तेरी (वपाम्) = [ बीजजन्म व प्रादुर्भाव ] (वपनशक्ति) = बीज बोना व उनको शतगुणित करके प्रकट करने की शक्ति को (अरोहत्) = ऊँचा चढ़ा दे, बढ़ा दे। ४. एवं स्पष्ट है कि जब नियमपूर्वक यज्ञ होते हैं तब वृष्टिजल से पृथिवी का आप्यायन होता है और इस प्रकार यह यज्ञाग्नि पृथिवी की उत्पादनशक्ति को बढ़ानेवाली होती है। जो भी राष्ट्र इस प्रकार यज्ञ के महत्त्व को समझ लेता है, वह इस पृथिवि के गर्भ से हित-रमणीय अन्नों को प्राप्त करता है, अतः उसका नाम 'हिरण्य-गर्भ' हो जाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञ करें, बादल पृथिवी को सींचेंगे और इस प्रकार यह यज्ञाग्नि पृथिवी की उत्पादनशक्ति को बढ़ा देगी।

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