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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 26
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यस्ते॑ऽअ॒द्य कृ॒णव॑द् भद्रशोचेऽपू॒पं दे॑व घृ॒तव॑न्तमग्ने। प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ऽअच्छा॒भि सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। अ॒द्य। कृ॒णव॑त्। भ॒द्र॒शो॒च॒ इति॑ भद्रऽशोचे। अ॒पू॒पम्। दे॒व॒। घृ॒तव॑न्त॒मिति॑ घृ॒तऽव॑न्तम्। अ॒ग्ने॒। प्र। तम्। न॒य॒। प्र॒त॒रमिति॑ प्रऽत॒रम्। वस्यः॑। अच्छ॑। अ॒भि। सु॒म्नम्। दे॒वभ॑क्त॒मिति॑ दे॒वऽभ॑क्तम्। य॒वि॒ष्ठ॒ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तेऽअद्य कृणवद्भद्रशोचे पूपन्देव घृतवन्तमग्ने । प्र तन्नय प्रतरँवस्योऽअच्छाभि सुम्नन्देवभक्तँयविष्ठ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। अद्य। कृणवत्। भद्रशोच इति भद्रऽशोचे। अपूपम्। देव। घृतवन्तमिति घृतऽवन्तम्। अग्ने। प्र। तम्। नय। प्रतरमिति प्रऽतरम्। वस्यः। अच्छ। अभि। सुम्नम्। देवभक्तमिति देवऽभक्तम्। यविष्ठ॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 26
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    पदार्थ -

    १. वेद में पाँचों ज्ञानेद्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञान को ‘ओदन’ [ भोजन ] कहा है, अतः जीव का नाम ही ‘पञ्चौदन’ कर दिया है। विद्यार्थी के लिए इस ओदन का परिपाक करनेवाला उसका आचार्य है। अथर्ववेद ९।५।३७ में ‘पचत पञ्च चौदनान्’ इन शब्दों में इन पाँचों ओदनों के परिपाक का निर्देश है। यह ज्ञान का ओदन ‘घृतवान्’ = मल के क्षरण के द्वारा दीप्ति प्राप्त करानेवाला है। यह ‘अपूप’ = न पूयते = न अपवित्र [ पूयी विशरणे दुर्गन्धे च ] होनेवाला है। इस ( घृतवन्तं अपूपम् ) = नैर्मल्य व दीप्तिवाले, न मलिन होने देनेवाले ज्ञानरूप अपूप को हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील छात्र! हे ( भद्रशोचे ) = कल्याणकर ज्ञान की दीप्तवाले! ( देव ) = ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करनेवाले, अतएव दिव्य गुणोंवाले! जो ( ते ) = तेरे लिए ( अद्य ) = आज ( कृणवत् ) = ज्ञानदान करता है ( तं अच्छ ) = उसकी ओर ( प्रतरम् ) = [ अतिशयेन प्रकृष्टं ] बहुत उत्तम ( वस्यः ) = [ वसीयः—अतिशयेन वसु ] निवास के लिए अत्यन्त उपयोगी धन ( प्रनय ) = प्राप्त करा। ( तम् ) = उसके लिए उत्तम-से-उत्तम गुरु-दक्षिणा देने का यत्न कर। २. इस प्रकार गुरु-भक्ति की भावनावाला ( यविष्ठ ) = बुराइयों को अधिक-से-अधिक दूर करनेवाला और अच्छाइयों से अपना मेल करनेवाला होकर ( देवभक्तम् ) = देवों से सेवित ( सुम्नम् ) = [ Hymn ] प्रभु-स्तवन की ( अभि ) = ओर अपने को ( प्रनय ) = ले-चल, अर्थात् ज्ञान देनेवाले गुरु के प्रति तो तेरी श्रद्धा हो ही, साथ ही तू देवों के सेवनीय प्रभु का स्तवन करनेवाला बन।

    भावार्थ -

    भावार्थ — जिस आचार्य ने हमें वह ज्ञान प्राप्त कराया, जिससे हमारा जीवन निर्मल हो गया, उस आचार्य के चरणों में हमें यथाशक्ति भेंट देनी चाहिए और सदा प्रभु का स्तवन करनेवाला बनना चाहिए।

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