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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 15
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सीद॒ त्वं मा॒तुर॒स्याऽउ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैनां॒ तप॑सा॒ मार्चिषा॒ऽभिशों॑चीर॒न्तर॑स्या शु॒क्रज्यो॑ति॒र्विभा॑हि॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीद॑। त्वम्। मा॒तुः। अ॒स्याः। उ॒पस्थे॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। विश्वा॑नि। अ॒ग्ने॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। मा। ए॒ना॒म्। तप॑सा। मा। अ॒र्चिषा॑। अ॒भि। शो॒चीः॒। अ॒न्तः। अ॒स्या॒म्। शु॒क्रज्यो॑ति॒रिति॑ शु॒क्रऽज्यो॑तिः। वि। भा॒हि॒ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीद त्वम्मातुरस्या उपस्थे विश्वान्यग्ने वयुनानि विद्वान् । मैनान्तपसा मार्चिषाभिशोचीरन्तरस्याँ शुक्रज्योतिर्वि भाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सीद। त्वम्। मातुः। अस्याः। उपस्थे इत्युपऽस्थे। विश्वानि। अग्ने। वयुनानि। विद्वान्। मा। एनाम्। तपसा। मा। अर्चिषा। अभि। शोचीः। अन्तः। अस्याम्। शुक्रज्योतिरिति शुक्रऽज्योतिः। वि। भाहि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -

    १. प्रभु त्रित से कहते हैं— ( त्वम् ) = तू ( अस्याः ) = इस ( मातुः ) = वेदमाता—मुझसे तेरे लिए प्रस्तुत की गई वेदवाणी की ( उपस्थे ) = गोद में ( सीद ) = बैठ। वेदवाणी की गोद में बैठना, अर्थात् तदनुसार अपना आचरण बनाना तेरा ध्येय हो। २. इसकी गोद में बैठकर हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील जीव! तू ( विश्वानि वयुनानि ) = सब प्रज्ञानों को ( विद्वान् ) = जाननेवाला हो। यह वेदवाणी सब सत्य विद्याओं का भण्डार है, अतः इसकी उपासना तुझे सब ज्ञानों को प्राप्त कराएगी ही। ३. ( एनाम् ) = इसे ( तपसा ) = तपस्वी जीवन से तथा ( अर्चिषा ) = ज्ञान की ज्योतियों से ( मा अभिशोची ) = मत सन्तप्त कर, अर्थात् तू इतना तपस्वी व ज्ञानी बन कि यह वेदमाता सदा तुझसे प्रसन्न रहे। ‘बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति’ = अल्पश्रुत व्यक्ति से वेद भयभीत होता है कि यह मेरा ग़लत अर्थ न कर दे, अतः तू बहुश्रुत व तपस्वी बनना, जिससे तू वेदमाता के ठीक स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाला हो सके। ४. ( अस्याम् अन्तः ) = इस वेदवाणी के अन्दर रहता हुआ ( शुक्रज्योतिः ) = [ शुक् गतौ ] गतिमय ज्ञानवाला तू ( विभाहि ) = विशेषरूप से दीप्त हो। तू वेदज्ञान प्राप्त कर और उसके अनुसार क्रियाशील हो। तू मस्तिष्क में इस वेदवाणी का विचार कर—तेरी वाणी से इसी का उच्चारण हो और क्रिया में इसी का आचरण हो। ऐसा होने पर ही तेरी विशिष्ट शोभा होगी। तू वेदमाता का सच्चा पुत्र होगा।

    भावार्थ -

    भावार्थ — मेरा जीवन वेदमय हो। वेदमाता का मैं सुपुत्र बनूँ। उसी के गोद में मेरा पालन व पोषण हो। मैं अपनी तपस्या व ज्ञान से इसे प्रसन्न करनेवाला होऊँ।

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