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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः॥६॥
स्वर सहित पद पाठअक्र॑न्दत्। अ॒ग्निः। स्त॒नय॑न्नि॒वेति॑ स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। क्षामा॑। रेरि॑हत्। वी॒रुधः॑। सम॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। वि। हि। ई॒म्। इ॒द्धः। अख्य॑त्। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। भा॒नुना॑। भा॒ति॒। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुधः समञ्जन् । सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अक्रन्दत्। अग्निः। स्तनयन्निवेति स्तनयन्ऽइव। द्यौः। क्षामा। रेरिहत्। वीरुधः। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। सद्यः। जज्ञानः। वि। हि। ईम्। इद्धः। अख्यत्। आ। रोदसीऽइति रोदसी। भानुना। भाति। अन्तरित्यन्तः॥६॥
विषय - व्यापक प्रकाश
पदार्थ -
गत मन्त्र के अनुसार चार पगों को रखकर जो भी प्रभु का दर्शन करता है, वह ‘वत्सप्रीः’—प्रभु का प्रिय व अपने कर्मों से प्रभु को प्रीणित करनेवाला बनता है। यह अनुभव करता है कि १. ( अग्निः ) = अग्रेणी प्रभु ( अक्रन्दत् ) = उच्च स्वर से वेदज्ञान का उच्चारण करते हैं। वे प्रभु ( स्तनयन् इव द्यौः ) = [ द्यौशब्देनात्र पर्जन्य उक्तः—म० ] गर्जना करते हुए मेघ के समान हैं। हम उस गर्जन को न सुनें तो इससे अधिक बधिरता क्या हो सकती है ? २. हम उस गर्जना को सुनते हैं तो वे प्रभु ( क्षामा ) = इस सारी पृथिवी को ( रेरिहत् ) = अत्यन्त आस्वादमय बना देते हैं। वेदवाणी को सुनकर हम तदनुसार अपना जीवन बनाते हैं तो हमारे जीवन आनन्दमय बन जाते हैं। ३. वे प्रभु हमारे जीवनों में ( वीरुधः ) = [ वि+रुह = प्रादुर्भाव ] विविध विकासों को ( समञ्जन् ) = व्यक्त करते हैं, अर्थात् प्रभु की वाणी को सुनकर तदनुसार जीवन बनाने से हमारे जीवनों में विशिष्ट शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। ४. ( जज्ञानः ) = हमारे हृदयों में प्रकट हुए वे प्रभु ( सद्यः ) = शीघ्र ही ( इद्धः ) = ज्ञान से दीप्त हुए हि ( ईम् ) = निश्चय से ( विअख्यत् ) = विशिष्टरूप से जीवन को प्रकाशमय करते हैं। ५. वे प्रभु ( रोदसी अन्तः ) = द्युलोक व पृथिवीलोक के अन्तर्भाग को ( भानुना ) = प्रकाश से ( आभाति ) = प्रकाशित कर देते हैं, अर्थात् प्रभु-दर्शन होने पर सर्वत्र प्रकाश-ही-प्रकाश हो जाता है।
भावार्थ -
भावार्थ — १. हृदयस्थ प्रभु निरन्तर प्रेरणा दे रहे हैं। यदि हम उस प्रेरणा को सुनें तो हमारा जीवन आनन्दमय हो जाता है। २. जीवन में सब शक्तियों का विकास होता है। ३. सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है। ४. सारा संसार भी प्रकाशमय व उलझनों से रहित प्रतीत होता है।
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