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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्र॑न्दत्। अ॒ग्निः। स्त॒नय॑न्नि॒वेति॑ स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। क्षामा॑। रेरि॑हत्। वी॒रुधः॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। वि। हि। ई॒म्। इ॒द्धः। अख्य॑त्। आ। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। भा॒नुना॑। भा॒ति॒। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुधः समञ्जन् । सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अक्रन्दत्। अग्निः। स्तनयन्निवेति स्तनयन्ऽइव। द्यौः। क्षामा। रेरिहत्। वीरुधः। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। सद्यः। जज्ञानः। वि। हि। ईम्। इद्धः। अख्यत्। आ। रोदसी इति रोदसी। भानुना। भाति। अन्तरित्यन्तः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -

    १. ( अग्निः ) = वह अग्रेणी परमात्मा ( अक्रन्दत् ) = पवित्र हृदयों में वेदवाणी का नाद करता है। ( स्तनयन्निव द्यौः ) = वह तो मेघ के समान गर्जना कर रहा है, परन्तु दुर्भाग्यवश हम उस शब्द को सुनते नहीं। २. वे प्रभु ( क्षामा ) = इस पृथिवीस्थ प्राणियों को ( रेरिहत् ) = आस्वादमय जीवनवाला बनाते हैं। वे ( वीरुधः ) = विविध शक्तियों के विकास को ( समञ्जन् ) = व्यक्त करते हैं ३. ( जज्ञानः ) = प्रकट होते हुए ( इद्धः ) = ज्ञान-दीप्त वे प्रभु ( सद्यः ) = शीघ्र हि ( ईम् ) = निश्चय से वि ( अख्यदा ) = हमारे जीवन को विशिष्ट प्रकाशमय कर देते हैं। ४. ( रोदसी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक को ( भानुना ) = दीप्ति से ( अन्तः ) = अन्दर ( आभाति ) = सर्वतः प्रकाशमय कर देते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु की वाणी को सुनने पर जीवन प्रकाशमय हो उठता है, उसमें विविध शक्तियों का विकास होता है। प्रभु का प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है।

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