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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
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    प्र॒थ॒मा द्वि॒तीयै॑र्द्वि॒तीया॑स्तृ॒तीयै॑स्तृ॒तीयाः॑ स॒त्येन॑ स॒त्यं य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञो यजु॑र्भि॒र्यजू॑षि॒ साम॑भिः॒ सामा॑न्यृ॒ग्भिर्ऋचः॑। पुरोऽनुवा॒क्याभिः पुरोऽनुवा॒क्या या॒ज्याभिर्या॒ज्या वषट्का॒रैर्व॑षट्का॒राऽ आहु॑तिभि॒राहु॑तयो मे॒ कामा॒न्त्सम॑र्धयन्तु॒ भूः स्वाहा॑॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒थ॒मा। द्वि॒तीयैः॑। द्वि॒तीयाः॑। तृ॒तीयैः॑। तृ॒तीयाः॑। स॒त्येन॑। स॒त्यम्। य॒ज्ञेन॑। य॒ज्ञः। यजु॑र्भि॒रिति॒ यजुः॑ऽभिः। यजू॑षि। साम॑भि॒रिति॒ साम॑ऽभिः। सामा॑नि। ऋ॒ग्भिरित्यृ॒क्ऽभिः। ऋचः॑। पु॒रो॒नु॒वा॒क्या᳖भि॒रिति॑ पुरःऽअनुवा॒क्याभिः। पु॒रो॒नु॒वा॒क्या॒ इति॑ पुरःऽअनुवा॒क्याः । भिः᳖या॒ज्या । ᳖या॒ज्याः। व॒ष॒ट्का॒रैरिति॑ वषट्ऽका॒रैः। राःकाष॒ट्का॒रा इति॑ वषट्ऽव ।आहु॑तिभि॒रित्याहु॑तिऽभिः। आहु॑तय॒ इत्याऽहु॑तयः। मे॒। कामा॑न्। सम्। अ॒र्ध॒य॒न्तु॒। भूः। स्वाहा॑ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रथमा द्वितीयैर्द्वितीयास्तृतीयैस्तृतीयाः सत्येन सत्यँयज्ञेन यज्ञो यजुर्भिर्यजूँषि सामभिः सामान्यृग्भिरृचः पुरोनुवाक्याभिः पुरोनुवाक्या याज्याभिर्याज्या वषट्कारैर्वषट्काराऽआहुतिभिरहुतयो मे कामान्त्समर्धयन्तु भूः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रथमा। द्वितीयैः। द्वितीयाः। तृतीयैः। तृतीयाः। सत्येन। सत्यम्। यज्ञेन। यज्ञः। यजुर्भिरिति यजुःऽभिः। यजूषि। सामभिरिति सामऽभिः। सामानि। ऋग्भिरित्यृक्ऽभिः। ऋचः। पुरोनुवाक्याभिरिति पुरःऽअनुवाक्याभिः। पुरोनुवाक्या इति पुरःऽअनुवाक्याः। याज्याभिः। याज्याः। वषट्कारैरिति वषट्ऽकारैः। वषट्कारा इति वषट्ऽकाराः। आहुतिभिरित्याहुतिऽभिः। आहुतय इत्याऽहुतयः। मे। कामान्। सम्। अर्धयन्तु। भूः। स्वाहा॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के (प्रथमा:) = प्रथम स्थान में स्थित पृथिवीस्थ ग्यारह देव (द्वितीयै:) = द्वितीय स्थान में स्थित अन्तरिक्षस्थ ग्यारह देवों के साथ (मे) = मेरे (कामान्) = इष्टों को (समर्धयन्तु) = समृद्ध करें। इन देवों की कृपा से मेरे सब मनोरथ पूर्ण हों। मुझे पृथिवीस्थ ग्यारह देवों की कृपा से स्वास्थ्य प्राप्त हो तो अन्तरिक्षस्थ ग्यारह देवों की कृपा से मैं निर्मल हृदयवाला बनूँ। २. (द्वितीया:) = द्वितीय स्थान में स्थित अन्तरिक्षस्थ ग्यारह देव (तृतीयै:) = तृतीय स्थान में स्थित द्युलोकस्थ ग्यारह देवों के साथ मे कामान् समर्धयन्तु मेरे इष्टों को समृद्ध करें। मैं हृदय-नैर्मल्य के साथ ज्ञानदीप्ति को भी प्राप्त करूँ। ३. (तृतीया:) = तृतीय स्थान में स्थित द्युलोकस्थ ग्यारह देव सत्येन उस सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ मेरी कामनाओं को पूर्ण करें। मैं ज्ञानी बनूँ तथा सत्य को अपनानेवाला होऊँ। ४. (सत्यम्) = वह सत्यस्वरूप प्रभु यज्ञेन यज्ञ के साथ मेरे इष्टों को समृद्ध करे। मैं सत्य बोलूँ - यज्ञशील बनूँ। ५. (यज्ञः) = यज्ञ (यजुर्भिः) = देवपूजा, संगतिकरण व दान के साथ मुझे पूर्ण मनोरथ करे। मैं यज्ञशील बनूँ, देवों का आदर करूँ, बराबरवालों से प्रेम से मिलूँ तथा आवश्यकतावालों को दान अवश्य दूँ। ६. (यजुर्भिः) = ये पूजा, प्रेम व दान सामभिः - उपासनाओं के साथ व शान्त जीवन के साथ मुझे पूर्ण मनोरथ करें। मैं प्रभु का उपासक बनूँ और शान्त जीवनवाला होऊँ। ७. (सामानि) = ये उपासनाएँ (ऋग्भिः) = विज्ञानों व सूक्तों [मधुर भाषणों] के साथ मुझे समृद्ध काम करें। ८. (ऋचः) = ये विज्ञान (पुरोनुवाक्याभिः) - [पुरा अनु वच्] पूर्वाश्रम में आचार्य के उच्चारण के पीछे उच्चारण के द्वारा मेरे इष्टों को पूर्ण करें। पुरः का अर्थ 'सामने' भी होता है तब अर्थ होगा आचार्य के सामने बैठकर आचार्य से श्रावित ज्ञान को ठीक उसी के उच्चारित करना । यह उच्चारण ही मुझे ज्ञानी बनाएगा । ९. (पुरः अनुवाक्या:) = प्रथमाश्रम अनुसार में आचार्य के सामने बैठकर, आचार्य से उच्चरित ज्ञान को उच्चारण करने की क्रियाएँ (याज्याभिः) = [यज्=सङ्गतिकरण] उस ज्ञान को अपने साथ सङ्गत करने की क्रियाओं के साथ मुझे सफल मनोरथ करें। मैं उस ज्ञान को अपना अङ्ग बना पाऊँ। १०. (याज्या:) = यह ज्ञान को अपनाने की क्रियाएँ (वषट्कारै:) - [उत्तमकर्मभि: - द०] उत्तम कर्मों के साथ मुझे पूर्ण मनोरथ करें। ज्ञान का परिणाम मेरे जीवन में यह हो कि मैं सदा यज्ञादि उत्तम में कर्मोंवाला बनूँ। ११. (वषट्काराः) = ये उत्तम यज्ञादि कर्म (आहुतिभिः) = त्यागवृत्तियों के साथ मेरे कामों को समृद्ध करें। मेरा प्रत्येक कर्म त्याग की भावना से युक्त हो। १२. और अन्त (आहुतयः) = यह त्याग, यज्ञों को करके यज्ञशेष खाना, मे कामान् समर्धयन्तु मेरे इष्टों को पूर्ण करे। ये आहुतियाँ मेरे लिए इष्टकामधुक् हों । १३. (भूः) = इस प्रकार मैं सदा स्वस्थ बना रहूँ [भवति] नष्ट न हो जाऊँ और (स्वाहा) = उस (स्व) = आत्मा-प्रभु के प्रति अपना (हा) = अर्पण करनेवाला बनूँ ।

    भावार्थ - भावार्थ- मेरा जीवन देवों की कृपा से समृद्ध काम हो। मैं स्वस्थ बनूँ, प्रभु के प्रति अपना अर्पण करूँ।

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