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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 79
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अहा॑व्यग्ने ह॒विरा॒स्ये ते स्रु॒चीव घृ॒तं च॒म्वीव॒ सोमः॑।वा॒ज॒सनि॑ꣳ र॒यिम॒स्मे सु॒वीरं॑ प्रश॒स्तं धे॑हि य॒शसं॑ बृ॒हन्त॑म्॥७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अहा॑वि। अ॒ग्ने॒। ह॒विः। आ॒स्ये᳖। ते॒। स्रु॒ची᳖वेति॑ स्रु॒चिऽइ॑व। घृ॒तम्। च॒म्वी᳖वेति॑ च॒म्वी᳖ऽइव। सोमः॑। वा॒ज॒सनि॒मिति॑ वाज॒ऽसनि॑म्। र॒यिम्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवीर॑म्। प्र॒श॒स्तमिति॑ प्रश॒स्तम्। धे॒हि॒। य॒शस॑म्। बृ॒हन्त॑म् ॥७९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहाव्यग्ने हविरास्ये ते स्रुचीव घृतञ्चम्वीव सोमः । वाजसनिँ रयिमस्मे सुवीरम्प्रशस्तन्धेहि यशसम्बृहन्तम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अहावि। अग्ने। हविः। आस्ये। ते। स्रुचीवेति स्रुचिऽइव। घृतम्। चम्वीवेति चम्वीऽइव। सोमः। वाजसनिमिति वाजऽसनिम्। रयिम्। अस्मे इत्यस्मे। सुवीरमिति सुऽवीरम्। प्रशस्तमिति प्रशस्तम्। धेहि। यशसम्। बृहन्तम्॥७९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 79
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    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = अग्निकुण्ड में आहुत अग्ने ! (ते आस्ये) = तेरे मुख में (हविः अहावि) = मुझ से घृत की आहुति दी जाती है। (स्रुचि इव घृतम्) = जैसे चम्मच में घी तथा (चम्वि इव सोमः) = यज्ञपात्र में जिस प्रकार सोम होता है। हवन की तैयारी के साथ ही 'हवि, घृत व सोम' आदि को एकत्र करता है और अग्नि से कहता है कि 'चम्मच में घृत है,यज्ञपात्र में सोम है और तेरे मुख में हवि है'। चम्मच में घृत सदा रहता है, चमू नामक यज्ञपात्र में सोम, इसी प्रकार तेरे मुख में मुझसे नित्य हवि डाली जाती है। मेरी यह होम की प्रक्रिया सतत रहती है, विञ्छिन्न नहीं होती । २. हे अग्ने ! इस प्रकार आहुत हुआ हुआ तू [क] (वाजसनिम्) = अन्नादि आवश्यक सामग्री को प्राप्त करानेवाले (रयिम्) = धन को, [ख] (प्रशस्तं सुवीरम्) = प्रशंसा के योग्य उत्तम शक्ति को, जिस शक्ति से मेरी प्रशंसा ही प्रशंसा होती है, उस शक्ति को तथा [ग] (बृहन्तं यशसम्) = सदा बढ़ते हुए यश को अस्मे हमारे लिए धेहि धारण कर। अग्निहोत्र से वर्षा होकर अन्नादि की समृद्धि से धन बढ़ता है, रोगकृमियों के संहार से नीरोगता द्वारा बल बढ़ता है और त्यागवृत्ति की भावना बढ़ने से जीवन यशस्वी बनता है।

    भावार्थ - भावार्थ- सतत होम के तीन लाभ हैं- १. समय पर वर्षा होने से अन्नादि के ठीक उत्पादन से धन की वृद्धि २. वायुशुद्धि व कृमिसंहार द्वारा नीरोगता से शक्ति की वृद्धि ३. तथा त्याग - भावना के वर्धन से यश की वृद्धि ।

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