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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 41
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - उषासानक्ता देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उ॒षासा॒नक्ता॑ बृह॒ती बृ॒हन्तं॒ पय॑स्वती सु॒दुघे॒ शूर॒मिन्द्र॑म्। तन्तुं॑ त॒तं पेश॑सा सं॒वय॑न्ती दे॒वानां॑ दे॒वं य॑जतः सुरु॒क्मे॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षासा॒नक्ता॑। उ॒षसा॒नक्तेत्यु॒षसा॒ऽक्ता॑। बृ॒ह॒तीऽइति॑ बृह॒ती। बृ॒हन्त॑म्। पय॑स्वती॒ऽइति॒ पय॑स्वती। सु॒दुघे॒ऽइति॑ सु॒दुघे॑। शूर॑म्। इन्द्र॑म्। तन्तु॑म्। त॒तम्। पेश॑सा। सं॒वय॑न्ती॒ इति॑ स॒म्ऽवय॑न्ती। दे॒वाना॑म्। दे॒वम्। य॒ज॒तः॒। सु॒रु॒क्मे इति॑ सुऽरु॒क्मे ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषासानक्ता बृहती बृहन्तम्पयस्वती सुदुघे शूरमिन्द्रम् । तन्तुन्ततम्पेशसा सँवयन्ती देवानान्देवं यजतः सुरुक्मे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उषासानक्ता। उषसानक्तेत्युषसाऽक्ता। बृहतीऽइति बृहती। बृहन्तम्। पयस्वतीऽइति पयस्वती। सुदुघेऽइति सुदुघे। शूरम्। इन्द्रम्। तन्तुम्। ततम्। पेशसा। संवयन्ती इति सम्ऽवयन्ती। देवानाम्। देवम्। यजतः। सुरुक्मे इति सुऽरुक्मे॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 41
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्र में 'उषासानक्ता' शब्द पति-पत्नी के लिए है। 'उष दाहे' धातु से उषस् शब्द बनता है- पति अज्ञानान्धकार का दहन करनेवाला होता है। 'नज् to be modest' धातु से बनकर 'नक्त' शब्द स्त्री का वाचक है, जो उचित लज्जा व शालीनतावाली है। ये (उषासानक्ता) = पति- पत्नी (बृहती) = गतमन्त्र के द्वारों के कार्य के ठीक होने से वर्धनवाले हैं। पयस्वती-आत्मिक शक्तियों के आप्यायनवाले हैं [पयस्-ओप्यायी वृद्धौ ] । २. ये पति-पत्नी उस इन्द्रम्-परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सुदुघे) = उत्तमता से अपने अन्दर पूरण करनेवाले हैं, जो प्रभु (बृहन्तम्) = सब प्रकार के वर्धन का कारण हैं तथा (शूरम्) = [शृ हिंसायाम्] सब प्रकार की बुराइयों को हिंसित करनेवाले हैं। प्रभु की भावना को अपने में भरने से हमारी शक्तियों का वर्धन होता है और सब आसुर वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । ३. (ततं तन्तुम्) सृष्टि के प्रारम्भ में विस्तृत यज्ञ - तन्तु को (पेशसा) = सुन्दर रूप से (संवयन्ती) = ये सन्तत करनेवाले होते हैं, अर्थात् सृष्टि-प्रारम्भ में प्रभु ने जिस यज्ञ को प्रजाओं के साथ ही उत्पन्न किया है उस यज्ञतन्तु को ये विच्छिन्न नहीं होने देते। इनका जीवन यज्ञरूप बना रहता है। ४. इस यज्ञ से ये पति-पत्नी (देवानां देवम्) = देवाधिदेव परमात्मा को (यजत:) = उपासित करते हैं। यज्ञ द्वारा प्रभु का पूजन करते हैं- ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः') । ५. इस प्रभु के उपासन का ही यह परिणाम होता है कि ये (सुरुक्मे) = उत्तम दीप्तिवाले होते हैं। प्रभु के सम्पर्क से प्रभु की दीप्ति से ये भी दीप्त हो उठते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - [क] हम प्रभु का अपने में पूरण करें, जिससे हमारा वर्धन हो और हमारी आसुर वृत्तियों का संहार हो, [ख] यज्ञतन्तु को विच्छिन्न न करने के द्वारा हम प्रभु का उपासन करें, [ग] प्रभु-उपासन से हम प्रभु की भाँति दीप्त हो उठें, प्रभु की दीप्ति से दीप्त हो जाएँ। ,

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