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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 70
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - इन्द्रसवितृवरुणा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यऽइन्द्र॑ऽइन्द्रि॒यं द॒धुः स॑वि॒ता वरु॑णो॒ भगः॑।स सु॒त्रामा॑ ह॒विष्प॑ति॒र्यज॑मानाय सश्चत॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। इन्द्रे॑। इ॒न्द्रि॒यम्। द॒धुः। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भगः॑। सः। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। ह॒विष्प॑तिः। ह॒विःप॑ति॒रिति॑ ह॒विःऽप॑तिः। यज॑मानाय। स॒श्च॒त॒ ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यऽइन्द्र इन्द्रियन्दधुः सविता वरुणो भगः । स सुत्रामा हविष्पतिर्यजमानाय सश्चत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। इन्द्रे। इन्द्रियम्। दधुः। सविता। वरुणः। भगः। सः। सुत्रामेति सुऽत्रामा। हविष्पतिः। हविःपतिरिति हविःऽपतिः। यजमानाय। सश्चत॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 70
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    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (सविता) = निर्माण की देवता, (वरुणः) = द्वेषनिवारण की देवता तथा (भग:) = [भज सेवायाम्] उपासना की वृत्ति (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (इन्द्रियम्) = वीर्य को, इन्द्रियशक्ति को (दधुः) = धारण करते हैं तो २. (सः) = वह इन्द्र (सुत्रामा) = [सु+त्रा] बड़ी उत्तमता से अपना त्राण करनेवाला, अर्थात् नीरोग बनता है। यह ३. (हविष्पतिः) = हवि का रक्षक होता है। इसके मन में देकर खाने की वृत्ति होती है और यह इन्द्र ४. (यजमानाय) = इस सृष्टियज्ञ को चलानेवाले के लिए (सश्चत) = [सेवताम् ] सेवन करनेवाला बने। ५. सदा निर्माण की क्रिया में लगे रहने से, निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त रहने से यह स्वयं सविता बनता है और अपने शरीर की रक्षा कर पाता है। एवं यह सुत्रामा होता है । ६. ईर्ष्या-द्वेष से ऊपर उठकर यह 'वरुण' होता है और सबके साथ प्रेम होने से मिलकर खाता है। इसी को यहाँ 'हविष्पति' बनना कहा है। ७. (भगः) = उपासना से यह उस यजमान को, सृष्टियज्ञ के प्रवर्तक प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- सविता, वरुण व भग की कृपा से हम 'सुत्रामा, हविष्पति व प्रभुसेवी' बनें।

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