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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 59
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒श्विना॒ नमु॑चेः सु॒तꣳ सोम॑ꣳ शु॒क्रं प॑रि॒स्रुता॑। सर॑स्वती॒ तमाभ॑रद् ब॒र्हिषेन्द्रा॑य॒ पात॑वे॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। सु॒तम्। सोम॑म्। शु॒क्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सर॑स्वती। तम्। आ। अ॒भ॒र॒त्। ब॒र्हिषा॑। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना नमुचेः सुतँ सोमँ शुक्रम्परिस्रुता । सरस्वती तामाभरद्बर्हिषेन्द्राय पातवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। नमुचेः। सुतम्। सोमम्। शुक्रम्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सरस्वती। तम्। आ। अभरत्। बर्हिषा। इन्द्राय। पातवे॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 59
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    पदार्थ -
    १. (अश्विना) = ये प्राणापान (नमुचे:) = [न+मुचि] न परित्याग करनेवाले के, अर्थात् अपव्यय न करनेवाले के (सुतम्) उत्पन्न हुए हुए (सोमम्) = सोम को (परिस्त्रुता) = शरीर में चारों ओर स्रुत व व्याप्त करनेवाले होते हैं। शरीर में व्याप्त हुआ हुआ यह सोम (शुक्रम्) = उनके जीवन को [शुक् दीप्तौ] दीप्त बनानेवाला होता है और [ शुक् गतौ ] उन्हें क्रियाशील बनाता है। [क] यहाँ 'नमुचि' शब्द अभिमानरूप आसुर भावना के लिए न आकर उस पुरुष के लिए प्रयुक्त हुआ है जो व्यर्थ के भोगविलास में वीर्य का परित्याग नहीं करता । [ख] इस पुरुष के वीर्य को प्राणापान ऊर्ध्वगति देकर सारे शरीर में व्याप्त कर देते हैं। [ग] शरीर में व्याप्त हुआ हुआ यह सोम उस पुरुष के जीवन को उज्ज्वल बनाता है, और उसे खूब क्रियाशील बने रहने की क्षमता प्राप्त कराता है। २. अब (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता तम् उस शरीर में व्याप्त किये गये सोम को (बर्हिषा) = वासनाशून्य हृदय के साथ व इस निर्वासन हृदय के द्वारा (इन्द्राय) = इन्द्र के लिए (आभरत्) = धारण करती है (पातवे) = जिससे वह अपना रक्षण कर सके। ज्ञान में लगा हुआ पुरुष इस सोम का शरीर में बड़ा सुन्दर सद्व्यय कर पाता है। इस प्रकार शरीर में ही व्ययित हुआ हुआ सोम उसका संरक्षण करनेवाला होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्राणसाधना से सोम का शरीर में ही व्यापन करें, वहाँ यह ज्ञानाग्नि के ईंधन के रूप में व्ययित हो और इस प्रकार यह सोम उस सोमपान करनेवाले की रोगों से रक्षा करनेवाला बने।

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